श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अर्थ- अगर तू मन को मेरे में अचल भाव से स्थिर (अर्पण) करने में समर्थ नहीं है, तो हे धनञ्जय! अभ्यासयोग के द्वारा तू मेरी प्राप्ति की इच्छा कर। व्याख्या- ‘अथ चित्तं समाधातुं......मामिच्छाप्तुं धनञ्जय’- यहाँ ‘चित्तम्’ पद का अर्थ ‘मन’ है। परंतु इस श्लोक का पीछे के श्लोक में वर्णित साधन से संबंध है, इसलिए ‘चित्तम्’ पद से यहाँ मन और बुद्धि दोनों ही लेना युक्तिसंगत है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि अगर तू मन-बुद्धि को मेरे में अचल भाव से स्थापित करने में अर्थात मेरे अर्पण करने में अपने को असमर्थ मानता है, तो अभ्यासयोग के द्वारा मेरे को प्राप्त करने की इच्छा कर। ‘अभ्यास’ और ‘अभ्यासयोग’ पृथक-पृथक है। किसी लक्ष्य पर चित्त को बार-बार लगाने का नाम ‘अभ्यास’ है और समता का नाम ‘योग’ है। समता रखते हुए अभ्यास करना ही ‘अभ्यासयोग’ कहलाता है। केवल भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से किया गया भजन, नाम-जप आदि ‘अभ्यासयोग’ है। अभ्यास के साथ योग का संयोग न होने से साधक का उद्देश्य संसार ही रहेगा। संसार का उद्देश्य होने पर स्त्री-पुत्र, धन-संपत्ति, मान-बड़ाई, नीरोगता, अनुकूलता आदि की अनेक कामनाएँ उत्पन्न होगी। कामना वाले पुरुष की क्रियाओं के उद्देश्य भी (कभी पुत्र, कभी धन, कभी मान-बड़ाई आदि) भिन्न-भिन्न रहेंगे।[1] इसलिए ऐसे पुरुष की क्रिया में योग नहीं होगा। योग तभी होगा, जब क्रियामात्र का उद्देश्य (ध्येय) केवल परमात्मा ही हो। साधक जब भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य रखकर बार-बार नाम-जप आदि करने की चेष्टा करता है, तब उसके मन में दूसरे अनेक संकल्प भी पैदा होते रहते हैं, अतः साधक को ‘मेरा ध्येय भगवत्प्राप्ति ही है’- इस प्रकार की दृढ़ धारणा करके अन्य सब संकल्पों से उपराम हो जाना चाहिए। ‘मामिच्छातुप्तम्’ पदों से भगवान ‘अभ्यासयोग’ को अपनी प्राप्ति का स्वतंत्र साधन बताते हैं। पीछे के श्लोक में भगवान ने अपने में मन-बुद्धि अर्पण करने के लिए कहा। अब इस श्लोक में अभ्यासयोग के लिए कहते हैं। इससे यह धारणा हो सकती है कि अभ्यासयोग भगवान में मन-बुद्धि अर्पण करने का साधन है; अतः पहले अभ्यास के द्वारा मन-बुद्धि भगवान के अर्पण होंगे, फिर भगवान के प्राप्ति होगी। परंतु मन-बुद्धि को अर्पण करने से ही भगवत्प्राप्ति होती हो, ऐसा नियम नहीं है। भगवान के कथन का तात्पर्य यह है कि यदि उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही हो अर्थात उद्देश्य के साथ साधक की पूर्ण एकता हो तो केवल ‘अभ्यास’ से ही उसे भगवत्प्राप्ति हो जाएगी। जब साधक भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से बार-बार नाम-जप, भजन-कीर्तन, श्रवण आदि का अभ्यास करता है, तब उसका अंतःकरण शुद्ध होने लगता है और भगवत्प्राप्ति की इच्छा जाग्रत हो जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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