श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
भगवान की प्राप्ति किसी साधन विशेष से नहीं होती। कारण कि ध्यानादि साधन शरीर-मन-बुद्धि इंद्रियों के आश्रय से होते हैं। शरीर-मन-बुद्धि-इंद्रियाँ आदि प्रकृति के कार्य होने से जड़ वस्तुएँ हैं। जड़ पदार्थों के द्वारा चिन्मय भगवान खरीदे नहीं जा सकते; क्योंकि प्रकृति के संपूर्ण पदार्थ मिलकर भी चिन्मय परमात्मा के समान कभी नहीं हो सकते। सांसारिक पदार्थ कर्म (पुरुषार्थ) करने से ही प्राप्त होते हैं; अतः साधक भगवान की प्राप्ति को भी स्वाभाविक ही कर्मों से होने वाली मान लेता है। इसलिए भगवत्प्राप्ति के संबंध में भी वह यही सोचता है कि मेरे द्वारा किए जाने वाले साधन से ही भगवत्प्राप्ति होगी। मनु-शतरूपा, पार्वती आदि को तपस्या से ही अपने इष्ट की प्राप्ति हुई- इतिहास पुराणादि में इस प्रकार की कथाएँ पढ़ने-सुनने से साधक के अंतःकरण में ऐसी छाप पड़ जाती है कि साधन के द्वारा ही भगवान मिलते हैं और उसकी यह धारणा क्रमशः दृढ़ होती रहती है। परंतु साधन से ही भगवान मिलते हों, ऐसी बात वस्तुत: है नहीं। तपस्यादि साधनों से जहाँ भगवान की प्राप्ति हुई दिखती है, वहाँ भी वह जड़ के साथ माने हुए संबंध का सर्वथा विच्छेद होने से हुई है, न कि साधनों से। साधन की सार्थकता असाधन (जड़ के साथ माने हुए संबंध) का त्याग करने में ही है। भगवान सबको सदा-सर्वदा स्वतः प्राप्त हैं ही; किंतु जड़ के साथ माने हुए संबंध का सर्वथा त्याग होने पर ही उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। इसलिए भगवत्प्राप्ति जड़ता के द्वारा नहीं, प्रत्युत जड़ता के त्याग- (संबंध-विच्छेद) से होती है। अतः जो साधक अपने साधन के बल से भगवत्प्राप्ति मानते हैं, वे बड़ी भूल में है। साधन की सार्थकता केवल जड़ता का त्याग कराने में है- इस रहस्य को न समझकर साधन में ममता करने और इसका आश्रय लेने से साधक का जड़ के साथ संबंध बना रहता है। जब तक हृदय में जड़ता का किञ्चिन्मात्र भी आदर है, तब तक भगवत्प्राप्ति कठिन है। इसलिए साधक को चाहिए कि वह साधन की सहायता से जड़ता के साथ सर्वथा संबंध-विच्छेद कर ले। एकमात्र भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाने वाले साधन से जड़ता का संबंध सुगमतापूर्वक छूट जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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