श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
6. ऐसे उपासकों में यदि कोई सूक्ष्म दोष रह जाता है, तो (भगवान पर निर्भर होने से) सर्वज्ञ भगवान कृपा करके उसको दूर कर देते हैं।[4] 7. ऐसे उपासकों की उपासना भगवान की ही उपासना है। भगवान सदा-सर्वदा पूर्ण हैं ही। अतः भगवान की पूर्णता में किञ्चिन्मात्र भी संदेह न रहने के कारण उनमें सुगमता से श्रद्धा हो जाती है। श्रद्धा होने से वे नित्य-निरंतर भगवत्परायण हो जाते हैं। अतः भगवान ही उन उपासकों को बुद्धि योग प्रदान करते हैं, जिससे उन्हें भगवत्प्राप्ति हो जाती है।[5] 8. ऐसे उपासक भगवान को परम कृपालु मानते हैं। अतः उनकी कृपा के आश्रय से वे सब कठिनाईयों को पार कर जाते हैं। यही कारण है कि उनका साधन सुगम हो जाता है और भगवत्कृपा के बल से वे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति कर लेते हैं।[6] 9. मनुष्य में कर्म करने का अभ्यास तो रहता ही है[7], इसलिए भक्त को अपने कर्म भगवान के प्रति करने में केवल भाव ही बदलना पड़ता है; कर्म तो वे ही रहते हैं। अतः भगवान के लिए कर्म करने से भक्त कर्म-बंधन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है।[8] 10. हृदय में पदार्थों का आदर रहते हुए भी यदि वे प्राणियों की सेवा में लग जाते हैं तो उन्हें पदार्थों का त्याग करने में कठिनाई नहीं होती। सत्पात्रों के लिए पदार्थों के त्याग में तो और भी सुगमता है। फिर भगवान के लिए तो पदार्थों का त्याग बहुत ही सुगमता से हो सकता है। 11 इस साधन में विवेक और वैराग्य की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी प्रेम और विश्वास की है। जैसे, कौरवों के प्रति द्वेष-वृत्ति रहते हुए भी द्रौपदी के पुकारने मात्र से भगवान प्रकट हो जाते थे;[9] क्योंकि वह भगवान को अपना मानती थी। भगवान तो अपने साथ भक्त के प्रेम और विश्वास को ही देखते हैं, उसके दोषों को नहीं। भगवान के साथ अपनापन का संबंध जोड़ना उतना कठिन नहीं (क्योंकि भगवान की ओर से अपनापन स्वतः सिद्ध है), जितना कि पात्र बनना कठिन है।
मोरें प्रौढ़ तनय समय ग्यानी । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 12:7
- ↑ गीता 10:11
- ↑ गीता 12:7
- ↑ गीता 18:58, 66
- ↑ गीता 10:10
- ↑ गीता 18:56-58
- ↑ गीता 3:5
- ↑ गीता 18:46
- ↑ यह बात उन भक्तों के लिए है, जिनके स्मरण मात्र से भगवान प्रकट हो जाते हैं, सर्वसाधारण के लिए नहीं है। जो भक्त सर्वथा भगवान पर निर्भर हो जाता है एवं जिसकी भगवान के साथ इतनी प्रगाढ़ आत्मीयता होती है कि केवल स्मरण से भगवान प्रकट हो जाते हैं, उसके दोष दूर करने का दायित्त्व भगवान पर आ जाता है।
- ↑ गीता 18।51-53
- ↑ 3।43।4
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