श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
गीता में समबुद्धि का तात्पर्य ‘समदर्शन’ है, न कि ‘समवर्तन’। पाँचवें अध्याय के अठारहवें श्लोक में भगवान ने विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण तथा गाय, हाथी, कुत्ता और चांडाल- इन पाँच प्राणियों के नाम गिनाए हैं, जिनके साथ व्यवहार में किसी भी प्रकार से समता होनी संभव नहीं। वहाँ भी ‘समदर्शिनः’ पद प्रयुक्त हुआ है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि सबके प्रति व्यवहार कभी समान नहीं हो सकता। व्यवहार एक समान कोई कर सकता भी नहीं और होना चाहिए भी नहीं। व्यवहार में भिन्नता होनी आवश्यक है। व्यवहार में साधक की विभिन्न प्राणी-पदार्थों की आकृति और उपयोगिता पर दृष्टि रहते हुए भी वास्तव में उसकी दृष्टि उन प्राणी-पदार्थों में परिपूर्ण परमात्मा पर ही रहती है। जैसे विभिन्न प्रकार के गहनों से तत्त्व (सोने) में कोई अन्तर नहीं आता, ऐसे ही विभिन्न प्रकार के व्यवहार से साधक की तत्त्व दृष्टि में कोई अंतर नहीं आता। संपूर्ण प्राणियों के प्रति साधक में आंतरिक समता रहती है। यहाँ ‘समबुद्धयः’ पद से उस आंतरिक समता की ओर ही लक्ष्य कराया गया है। सिद्ध महापुरुषों की दृष्टि में एक परमात्मा के सिवाय दूसरी सत्ता न रहने के कारण वे सदा और सर्वत्र ‘समबुद्धि’ ही हैं। सिद्ध महापुरुषों की स्वतः सिद्ध स्थिति ही साधकों के लिए आदर्श होती है और उसी को लक्ष्य करके वे चलते हैं। साधकों की दृष्टि में परमात्मा के सिवाय अन्य पदार्थों की जितने अंश में सत्ता रहती है, उतने ही अंश में उनकी बुद्धि में समता नहीं रहती। अतः साधक की बुद्धि में अन्य पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता जैसे-जैसे कम होती जाएगी, वैसे-वैसे ही उसकी बुद्धि सम होती जाएगी। |
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