श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
निर्गुण-उपासकों की साधना के अंतर्गत अनेक अवान्तर भेद होते हुए भी मुख्य भेद दो हैं-
पहली साधना में ‘सब कुछ ब्रह्म है’ इतना सीख लेने- मात्र से ज्ञाननिष्ठा सिद्ध नहीं होती। जब तक अंतःकरण में राग अर्थात काम-क्रोधादि विकार हैं, तब तक ज्ञाननिष्ठा का सिद्ध होना बहुत कठिन है। जैसे राग मिटाने के लिए कर्मयोगी के लिए सभी प्राणियों के हित में रति होना आवश्यक है, ऐसे ही निर्गुण-उपासना करने वाले साधकों के लिए भी प्राणिमात्र के हित में रति होना आवश्यक है- तभी राग मिटकर ज्ञाननिष्ठा सिद्ध हो सकती है। इसी बात का लक्ष्य कराने के लिए यहाँ ‘सर्वभूतहिते रताः’ पद आए हैं। दूसरी साधना में, जो साधक संसार से उदासीन रहकर एकान्त ही तत्त्व का चिन्तन करते रहते हैं, उनके लिए कर्मों का स्वरूप से त्याग सहायक तो होता है, परंतु केवल कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देने मात्र से ही सिद्धि प्राप्त नहीं होती[1], प्रत्युत सिद्धि प्राप्त करने के लिए भोगों से वैराग्य और शरीर-इंद्रिय-मन-बुद्धि में अपनेपन के त्याग की अत्यंत आवश्यकता है। इसलिए वैराग्य और निर्ममता के लिए ‘सर्वभूतहिते रताः’ होना आवश्यक है। ज्ञानयोग का साधक प्रायः समाज से दूर, असंग रहता है। अतः उसमें व्यक्तित्त्व रह जाता है, जिसे दूर करने के लिए संसारमात्र के हित का भाव रहना अत्यंत आवश्यक है। वास्तव में असंगता शरीर से ही होनी चाहिए। समाज से असंगता होने पर अहंभाव दृढ़ होता है, अर्थात मिटता नहीं। जब तक साधक अपने को शरीर से स्पष्टतः अलग अनुभव नहीं कर लेता, तब तक संसार से अलग रहने मात्र से उसका लक्ष्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि शरीर भी संसार का ही अंग है और शरीर में तादात्म्य और ममता का न रहना ही उससे वस्तुतः अलग होना है। तादात्म्य और ममता मिटाने के लिए साधक को प्राणिमात्र के हित में लगाना आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि साधक सर्वदा एकान्त में ही रहे, यह संभव भी नहीं है; क्योंकि शरीर-निर्वाह के लिए उसे व्यवहार-क्षेत्र में आना ही पड़ता है और वैराग्य में कमी होने पर उसके व्यवहार में अभिमान के कारण कठोरता आने की संभावना रहती है तथा कठोरता आने से उसके व्यक्तित्व (अहंभाव) का नाश नहीं होता। अतः उसे तत्त्व की प्राप्ति में कठिनता होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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