श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
एक बात खास ध्यान देने की है। शरीर, पदार्थ और क्रिया से जो सेवा की जाती है, वह सीमित ही होती है; क्योंकि संपूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ मिलकर भी सीमित ही हैं। परंतु सेवा में प्राणिमात्र के हित का भाव असीम होने से सेवा भी असीम हो जाती है। अतः पदार्थों के अपने पास रहते हुए भी (उनमें आसक्ति, ममता आदि न करके) उनको संपूर्ण प्राणियों का मानकर उन्हीं की सेवा में लगाना है; क्योंकि वे पदार्थ समष्टि के ही हैं। ऐसा असीम भाव होने पर जड़ता से सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाने के कारण साधक को असीम तत्त्व (परमात्मा) की प्राप्ति हो जाती है। कारण कि पदार्थों को व्यक्तिगत (अपना) मानने से ही मनुष्य में परिच्छिन्नता (एकदेशीयता) तथा विषमता रहती है और पदार्थों को व्यक्तिगत न मानकर संपूर्ण प्राणियों के हित का भाव रखने से परिच्छिन्नता तथा विषमता मिट जाती है। इसके विपरीत साधारण मनुष्य का ममता वाले प्राणियों की सेवा करने का सीमित भाव रहने से वह चाहे अपना सर्वस्व उनकी सेवा में क्यों न लगा दे, तो भी पदार्थों में तथा जिनकी सेवा करे, उनमें आसक्ति, ममता आदि रहने से (सीमित भाव के कारण) उसे असीम परमात्मतत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। अतः असीम परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए प्राणिमात्र के हित में रति अर्थात प्रीति-रूप असीम भाव का होना आवश्यक है। ‘सर्वभूतहिते रताः’ पद उसी भाव को व्यक्त करते हैं। ज्ञानयोग का साधक जड़ता से संबंध-विच्छेद करना चाहता तो है; परंतु जब तक उसके हृदय में नाशवान पदार्थों का आदर है, तब तक पदार्थों को मायामय अथवा स्वप्नवत समझकर उनका ऐसे ही त्याग कर देना उसके लिए कठिन है। परंतु कर्मयोग का साधक पदार्थों को दूसरों की सेवा में लगाकर उनका त्याग ज्ञानयोगी की अपेक्षा सुगमतापूर्वक कर सकता है। ज्ञानयोगी में तीव्र वैराग्य होने से ही पदार्थों का त्याग हो सकता है; परंतु कर्मयोग थोड़े वैराग्य में ही पदार्थों का त्याग (परहित में) कर सकता है। प्राणियों के हित में पदार्थों का सदुपयोग करने से जड़ता से सुगमतापूर्वक संबंध-विच्छेद हो जाता है। |
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