श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । अर्थ- जो अपनी इंद्रियों को वश में करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्र के हित में रत और सब जगह समबुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं। व्याख्या- ‘तु’- यहाँ ‘तु’ पद साकार-उपासकों से। निराकार-उपासकों की भिन्नता दिखाने के लिए आया है। ‘संनियम्येन्द्रियग्रामम्’- ‘सम्’ और ‘नि’- दो उपसर्गों से युक्त ‘संनियम्य’ पद देकर भगवान ने यह बताया है कि सभी इंद्रियों को सम्यक् प्रकार से एवं पूर्णतः वश में करे, जिससे वे किसी अन्य विषय में न जाएँ। इंद्रियाँ अच्छी प्रकार से पूर्णतः वश में न होने पर निर्गुण-तत्त्व की उपासना में कठितना होते हैं। सगुण-उपासना में तो ध्यान का विषय सगुण भगवान होने से इंद्रियाँ भगवान में लग सकती है; क्योंकि भगवान के सगुण स्वरूप में इंद्रियों को अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासना में इंद्रिय संयम की आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण उपासना में है। निर्गुण उपासना में चिनत्न का कोई आधार न रहने से इंद्रियों का सम्यक संयम हुए बिना (आसक्ति रहने पर) विषयों में मन जा सकता है और विषयों का चिन्तन होने से पतन होने की अधिक संभावना रहती है।[1] अतः निर्गुणोपासक के लिए सभी इंद्रियों को विषयों से हटाते हुए सम्यक प्रकार से पूर्णतः वश में करना आवश्यक है। इंद्रियों को केवल बाहर से ही वश में नहीं करना है, प्रत्युत विषयों के प्रति साधक के अंतःकरण में भी राग नहीं रहना चाहिए; क्योंकि जब तक विषयों में राग है, तब तक ब्रह्म की प्राप्ति कठिन है।[2] गीता में इंद्रियों को वश में करने की बात विशेष रूप से जितनी निर्गुणोपासना तथा कर्मयोग में आयी है, उतनी सगुणोपासना में नहीं। ‘अचिन्त्यम्’- मन-बुद्धि का विषय न होने के कारण ‘अचिन्त्यम्’ पद निर्गुण-निराकार ब्रह्म का वाचक है; क्योंकि मन-बुद्धि प्रकृति का कार्य होने से संपूर्ण प्रकृति को भी अपना विषय नहीं बना सकते, फिर प्रकृति से अतीत परमात्मा इनका विषय बन ही कैसे सकता है! प्राकृतिक पदार्थ मात्र चिन्त्य है और परमात्मा प्रकृति से अतीत होने के कारण संपूर्ण चिन्त्य पदार्थों से भी अतीत, विलक्षण हैं। प्रकृति की सहायता के बिना उनका चिन्तन, वर्णन नहीं किया जा सकता। अतः परमात्मा को स्वयं (करण-निरपेक्ष ज्ञान) से ही जाना जा सकता है; प्रकृति के कार्य मन-बुद्धि आदि (करण-सापेक्ष ज्ञान) से नहीं। ‘सर्वत्रगम्’- सब देश, काल, वस्तु और व्यक्तियों में परिपूर्ण होने से ब्रह्म ‘सर्वत्रगम्’ है। सर्वव्यापी होने के कारण वह सीमित मन-बुद्धि-इंद्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2।62-63
- ↑ गीता 15:11
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