श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः । अर्थ- हे पाण्डव! जो मेरे लिए ही कर्म करने वाला, मेरे ही परायण और मेरा ही भक्त है तथा सर्वथा आसक्तिरहित और प्राणिमात्र के साथ निर्वैर है, वह भक्त मेरे को प्राप्त हो जाता है। व्याख्या- [इस श्लोक में पाँच बातें आयी हैं। इन पाँचों को ‘साधनपञ्चक’ भी कहते हैं। इन पाँचों बातों के दो विभाग हैं। (1) भगवान के साथ घनिष्ठता और (2) संसार के साथ संबंध-विच्छेद। पहले विभाग में ‘मत्कर्मकृत’, ‘मत्परमः’ और ‘मद्भक्तः’- ये तीन बातें हैं; और दूसरे विभाग में ‘संगवर्जितः’ और ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु’- ये दो बातें हैं।] ‘मत्कर्मकृत्’- जो जप, कीर्तन, ध्यान, सत्संग, स्वाध्याय आदि भगवत्संबंधी कर्मों को और वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदि के अनुसार प्राप्त लौकिककर्मों को केवल मेरे लिए ही अर्थात मेरी प्रसन्नता के ले ही करता है, वह ‘मत्कर्मकृत’ है। वास्तव में देखा जाए तो कर्म के पारमार्थिक और लौकिक- ये दो ब्रह्मरूप होते हैं, पर भीतर में ‘सब कर्म केवल भगवान के लिए ही करने हैं’- ऐसा एक ही भाव रहता है, एक ही उद्देश्य रहता है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्त शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि से जो कुछ भी कर्म करता है, वह सब भगवान के लिए ही करता है। कारण कि उसके पास शरीर, मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, योग्यता, करने की सामर्थ्य, समझ आदि जो कुछ है, वह सब-की-सब भगवान की ही दी हुई है और भगवान की ही है, तथा वह स्वयं भी भगवान का ही है। वह तो केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए, भगवान की आज्ञा के अनुसार, भगवान की दी हुई शक्ति से निमित्तमात्र बनकर कार्य करता है। यही उसका ‘मत्कर्मकृत्’ होना है। ‘मत्परमः’- जो मेरे को ही परमोत्कृष्ट समझकर केवल मेरे ही परायण रहता है अर्थात जिसका परम प्रापणीय, परम ध्येय, परम आश्रय केवल मैं ही हूँ, ऐसा भक्त ‘मत्परमः’ है। ‘मद्भक्तः’- जो केवल मेरा ही भक्त है अर्थात जिसने मेरे साथ अटल संबंध जोड़ लिया है कि ‘मैं केवल भगवान का ही हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं, तथा मैं अन्य किसी का भी नहीं हूँ और अन्य कोई भी मेरा नहीं है।’ ऐसा होने से भगवान में अतिशय प्रेम हो जाता है; क्योंकि जो अपना होता है, वह स्वतः प्रिय लगता है। प्रेम की जागृति में अपनापन ही मुख्य है। वह भक्त सब देश में, सब काल में, संपूर्ण वस्तु व्यक्तियों में और अपने-आपमें सदा-सर्वदा प्रभु को ही परिपूर्ण देखता है। इस दृष्टि से प्रभु सब देश में होने से यहाँ भी हैं, सब काल में होने से अभी भी हैं, संपूर्ण वस्तु-व्यक्तियों में होने से मेरे में भी हैं और सबके होने से मेरे भी हैं- ऐसा भाव रखने वाला ही ‘मद्भक्तऋः’ है। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज