श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
‘प्रवेष्टुम्’ कहने का तात्पर्य है कि वह भगवान के साथ अपने-आपकी अभिन्नता का अनुभव कर लेता है अथवा उसका भगवान की नित्यलीला में प्रवेश है जाता है। नित्यलीला में प्रवेश होने में भक्त की इच्छा और भगवान की मरजी ही मुख्य होती है। यद्यपि भगवान के सर्वथा शरण होने पर भक्त की सब इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं, तथापि भगवान की यह एक विलक्षणता है कि भक्त की लीला में प्रवेश होने की जो इच्छा रही है, उसको वे पूरी कर देते हैं। केवल पारमार्थिक इच्छा को ही पूरी करते हों, ऐसी बात नहीं; किंतु भक्त की पहले जो सांसारिक यत्किञ्चित इच्छा रही हो, उसको भी भगवान पूरी कर देते हैं। जैसे भगवद्दर्शन से पूर्व की इच्छा के अनुसार ध्रुव जी को छत्तीस हजार वर्ष का राज्य मिला और विभीषण को एक कल्पका। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान भक्त की इच्छा को पूरी कर देते हैं और फिर अपनी मरजी के अनुसार उसे वास्तविक पूर्णता की प्राप्ति करा देते हैं, जिससे भक्त के लिए कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता। भक्त की खुद की जो उत्कट अभिलाषा है, उस अभिलाषा में ऐसी ताकत है कि वह भगवान में भी भक्त से मिलने की उत्कण्ठा पैदा कर देती है। भगवान की इस उत्कण्ठा में बाधा देने की किसी में भी सामर्थ्य नहीं है। अनन्त सामर्थ्यशाली भगवान की जब भक्त की तरफ कृपा उमड़ती है, तब वह कृपा भक्त के संपूर्ण विघ्नों को दूर करके, भक्त की योग्यता-अयोग्यता को किञ्चिन्मात्र भी न देखती हुई भगवान को भी परवश कर देती है, जिससे भगवान भक्त के सामने तत्काल प्रकट हो जाते हैं। संबंध- अब भगवान अनन्यभक्ति के साधनों का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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