श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
अगर संजय और अर्जुन शोक से, भय से व्यथित (व्याकुल) न होते, तो उनकी दिव्यदृष्टि बहुत समय तक रहती और वे बहुत कुछ देख लेते। परंतु शोक और भय से व्यथित होने के कारण उनकी दिव्यदृष्टि चली गयी। इसी तरह से जब मनुष्य मोह से संसार में आसक्त हो जाता है, तब भगवान की दी हुई विवेकदृष्टि काम नहीं करती। जैसे, मनुष्य का रुपयों में अधिक मोह होता है तो वह चोरी करने लग जाता है, फिर और मोह बढ़ने पर डकैती करने लग जाता है तथा अत्यदिक मोह बढ़ जाने पर वह रुपयों के लिए दूसरे की हत्या तक कर देता है। इस प्रकार ज्यों-ज्यों मोह बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसका विवेक काम नहीं करता। अगर मनुष्य मोह में न फँसकर अपनी विवेकदृष्टि को महत्त्व देता, तो वह अपना उद्धार करके संसारमात्र का उद्धार करने वाला बन जाता! संबंध- पूर्वश्लोक में भगवान ने अर्जुन को जिस रूप को देखने के लिए आज्ञा दी, उसी के अनुसार भगवान अपना विष्णुरूप दिखाते हैं- इसका वर्णन संजय आगे के श्लोक में कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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