श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
‘एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन’- मनुष्य लोक में इन साधनों से तुम्हारे सिवाय मेरा विश्वरूप कोई देख नहीं सकता- इसका अर्थ यह नहीं है कि इन साधनों से तू देख सकता है। तुम्हारे को तो मैंने अपनी प्रसन्नता से ही यह रूप दिखाया है। संजय को भी जो विश्वरूप के दर्शन हो रहे थे, वह भी व्यास जी की कृपा से प्राप्त दिव्यदृष्टि से ही हो रहे थे, किसी दूसरे साधन से नहीं। तात्पर्य है कि भगवान और उनके भक्तों, संतों की कृपा से जो काम होता है, वह काम साधनों से नहीं होता। इनकी कृपा भी अहैतु की होती है। कई लोग ठीक न समझने के कारण ऐसा कहते हैं कि भगवान ने अर्जुन को विश्वरूप दिखाया नहीं था, प्रत्युत यह समझा दिया था कि मरे शरीर के किसी एक अंश में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं। पर वास्तव में यह बात है ही नहीं। स्वयं भगवान ने कहा है कि ‘मेरे इस शरीर में एक जगह चराचर सहित संपूर्ण जगत को अभी देख ले’।[2] जब अर्जुन को दिखायी नहीं दिया, तब भगवान ने कहा कि ‘तू अपने इन चर्मचक्षुओं से मेरे विश्वरूप को नहीं देख सकता, इसलिए मैं तुझे दिव्यचक्षु देता हूँ’।[3] फिर भगवान ने अर्जुन को दिव्यचक्षु देकर साक्षात अपना विश्वरूप दिखाया। संजय ने भी कहा है कि ‘भगवान के शरीर में एक जगह स्थित विश्वरूप को अर्जुन से देखा’।[4] अर्जुन ने भी विश्वरूप का दर्शन करते हुए कहा कि ‘मैं आपके शरीर में संपूर्ण प्राणियों के समुदायों को तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सबको देख रहा हूँ’[5] आदि-आदि। इससे सिद्ध होता है कि भगवान ने अर्जुन को प्रत्यक्ष में अपने विश्वरूप के दर्शन कराए थे। दूसरी बात, समझाने के लिए तो ज्ञानचक्षु होते हैं[6], पर दिव्यचक्षु से साक्षात दर्शन ही होते हैं। अतः भगवान ने केवल कहकर समझा दिया हो, ऐसी बात नहीं है। संबंध- अर्जुन का भय दूर करने के लिए भगवान आगे के श्लोक में उनको ‘देवरूप’ देखने की आज्ञा देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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