श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः । अर्थ- हे कुरुप्रवीर! मनुष्यलोक में इस प्रकार के विश्वरूप वाला मैं न वेदों के पढ़ने से, न यज्ञों के अनुष्ठान से, न दान से, न उग्र तपों से और न मात्र क्रियाओं से तेरे (कृपापात्र के) सिवाय और किसी के द्वारा देखा जाना शक्य हूँ। व्याख्या- ‘कुरुप्रवीर’- यहाँ अर्जुन के लिए ‘कुरुप्रवीर’ संबोधन देने का अभिप्राय है कि संपूर्ण कुरुवंशियों में मेरे से उपदेश सुनने की, मेरे रुप को देखने की और जानने की तेरी जिज्ञासा हुई, तो यह कुरुवंशियों में तुम्हारी श्रेष्ठता है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान को देखने की, जानने की इच्छा होना ही वास्तव में मनुष्य की श्रेष्ठता है। ‘न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः’- वेदों का अध्ययन किया जाए, यज्ञों का विधि-विधान से अनुष्ठान किया जाए, बड़े-बड़े दान किये जाएं, बड़ी उग्र (कठिन-से-कठिन) तपस्याएँ की जाएँ और तीर्थ, व्रत आदि शुभ-कर्म किए जाएँ- ये सब-के-सब कर्म विश्वरूप दर्शन में हेतु नहीं बन सकते। कारण कि जितने भी कर्म किये जाते हैं, उन सबका आरंभ और समाप्ति होती है। अतः उन कर्मों से मिलने वाला फल भी आदि और अंत वाला ही होता है। अतः ऐसे कर्मों से भगवान अनन्त, असीम, अव्यय, दिव्य विश्वरूप के दर्शन कैसे हो सकते हैं? उसके दर्शन तो केवल भगवान की कृपा से ही होते हैं। कारण कि भगवान नित्य हैं और उनकी कृपा भी नित्य है। अतः नित्य कृपा से ही अर्जुन को भगवान के नित्य, अव्यय, दिव्य विश्वरूप के दर्शन हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि उनमें से एक-एक में अथवा सभी साधनों में यह सामर्थ्य नहीं है कि वे विराटरूप के दर्शन करा सकें। विराटरूप के दर्शन तो केवल भगवान की कृपा से, प्रसन्नता से ही हो सकते हैं। गीता में प्रायः यज्ञ, दान और तप- इन तीनों का ही वर्णन आता है। आठवें अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में और इसी अध्याय के तिरपनवें श्लोक में वेद, यज्ञ, दान और तप- इन चारों का वर्णन आया है और यहाँ वेद, यज्ञ, दान, तप और क्रिया- इन पाँचों का वर्णन आया है। आठवें अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में सप्तमी विभक्ति और बहुवचन तथा यहाँ के श्लोक में तृतीया विभक्ति और बहुवचन का प्रयोग हुआ है, जबकि दूसरी जगह प्रायः प्रथमा विभक्ति और एकवचन का प्रयोग आता है। यहाँ तृतीया विभक्ति और बहुवचन देने का तात्पर्य यह है कि इन वेद, यज्ञ, दान आदि साधनों में से एक-एक साधन विशेषता से बहुत बार किया जाए अथवा सभी साधन विशेषता से बहुत बार किए जाएं, तो भी वे सब-के-सब साधन विश्वरूप दर्शन के कारण नहीं बन सकते अर्थात इनके द्वारा विश्वरूप नहीं देखा जा सकता। कारण कि विश्वरूप का दर्शन करना किसी कर्म का फल नहीं है। |
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