श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
भगवान के द्वारा ‘मैंने अपनी प्रसन्नता से, कृपा से ही तेरे को यह विश्वरूप दिखाया है’- ऐसा कहने से एक विलक्षण भाव निकलता है कि साधक अपने पर भगवान की जितनी कृपा मानता है, उससे कई गुना अधिक भगवान की कृपा होती है। भगवान की जितनी कृपा होती है, उसको मानने की सामर्थ्य साधक में नहीं है। कारण कि भगवान की कृपा अपार-असीम है; और उसको मानने की सामर्थ्य सीमित है। साधक प्रायः अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि में ही भगवान की कृपा मान लेता है अर्थात सत्संग मिलता है, साधन ठीक चलता है, वृत्तियाँ ठीक हैं, मन भगवान में ठीक लग रहा है आदि में वह भगवान की कृपा मान लेता है। इस प्रकार केवल अनुकूलता में ही कृपा मानना कृपा को सीमा में बाँधना है, जिससे असीम कृपा का अनुभव नहीं होता। उस कृपा में ही राजी होना कृपा का भोग है। साधक को चाहिए कि वह न तो कृपा को सीमा में बाँधे और न कृपा का भोग ही करे। साधन ठीक चलने में जो सुख होता है, उस सुख में सुखी होना, राजी होना भी भोग है, जिससे बंधन होता है- ‘सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ’[3] सुख होना अथवा सुख का ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उसके साथ संग करना, उससे सुखी होना, प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगने से गुणातीत होने में बाधा लगती है। अतः साधक को बड़ी सावधानी से इस सुख से असंग होना चाहिए। जो साधक इस सुख से असंग नहीं होना अर्थात इसमें प्रसन्नतापूर्वक सुख लेता रहता है, वह भी यदि अपनी साधना में तत्परतापूर्वक लगा रहे, तो समय पाकर उसकी उस सुख से स्वतः अरुचि हो जाएगी। परंतु जो उस सुख से सावधानीपूर्वक असंग रहता है, उसे शीघ्र ही वास्तविक तत्त्व का अनुभव हो जाता है। संबंध- विश्वरूप दर्शन के लिए भगवान की कृपा के सिवाय दूसरा कोई साधन नहीं है- इस बात का आगे के श्लोक में विशेषता से वर्णन करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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