श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । अर्थ- इसलिए शरीर से लम्बा पड़कर स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। जैसे पिता पुत्र के, मित्र मित्र के और पति-पत्नी के अपमान को सह लेता है, ऐसे ही हे देव! आप मेरे द्वारा किया गया अपमान सहने में समर्थ हैं। व्याख्या- ‘तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्’- आप अनन्त ब्रह्माण्डों के ईश्वर हैं। इसलिए सबके द्वारा स्तुति करने योग्य आप ही हैं। आपके गुण, प्रभाव, महत्त्व आदि अनन्त हैं; अतः ऋषि, महर्षि, देवता, महापुरुष आपकी नित्य-निरंतर स्तुति करते रहें, तो भी पार नहीं पा सकते। ऐसे स्तुति करने योग्य आपकी मैं क्या स्तुति कर सकता हूँ? मेरे में आपकी स्तुति करने का बल नहीं है, सामर्थ्य नहीं है। इसलिए मैं तो केवल आपके चरणों में लम्बा पड़कर दंडवत प्रणाम ही कर सकता हूँ और इसी से आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। ‘पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्’- किसी का अपमान होता है तो उसमें मुख्य तीन कारण होते हैं- (1) प्रमाद (असावधानी) से, (2) हँसी दिल्लगी, विनोद में खयाल न रहने से और (3) अपनेपन की घनिष्ठता होने पर अपने साथ रहने वाले का महत्त्व न जानने से। जैसे, गोदी में बैठा हुआ छोटा बच्चा अज्ञानवश पिता की दाढ़ी-मूछ खींचता है, मुँह पर थप्पड़ लगाता है, कभी कहीं लात मार देता है तो बच्चे की ऐसी चेष्टा देखकर पिता राजी ही होते हैं, प्रसन्न ही होते हैं। वे अपने में यह भाव लाते ही नहीं कि पुत्र मेरा अपमान कर रहा है। मित्र मित्र के साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते आदि समय चाहे जैसा व्यवहार करता है, चाहे जैसा बोल देता है, जैसे- ‘तुम बड़े सत्य बोलते हो जी! तुम तो बड़े सत्यप्रतिज्ञ हो!’ अब तो तुम बड़े आदमी हो गए हो! तुम तो खूब अभिमान करने लग गए हो! आज मानो तुम राजा ही बन गए हो! आदि, पर उसका मित्र उसकी इन बातों का खयाल नहीं करता। वह तो यही समझता है कि हम बराबरी के मित्र हैं, ऐसी हँसी-दिल्लगी तो होती ही रहती है। पत्नी के द्वारा आपस के प्रेम के कारण उठने-बैठने, बातचीत करने आदि में पति की जो कुछ अवहेलना होती है, उसे पति सह लेता है। जैसे, पति नहीं बैठा है तो वह ऊँचे आसन पर बैठ जाती है, कभी किसी बात को लेकर अवहेलना भी कर देती है, पर पति उसे स्वाभाविक ही सह लेता है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे पिता पुत्र के, मित्र मित्र के और पति पत्नी के अपमान को सह लेता है अर्थात क्षमा कर देता है, ऐसे ही हे भगवान! आप मेरे अपमान को सहने में समर्थ हैं अर्थात इसके लिए मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। |
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज