श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् । अर्थ- आप ही इस चराचर संसार के पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओं के महान गुरु हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवन! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कई नहीं है, फिर धिक तो हो ही कैसे सकता है! व्याख्या- ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’- अनन्त ब्रह्माण्डों में मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जितने जंगम प्राणी हैं, और वृक्ष, लता आदि जितने स्थावर प्राणी हैं, उन सबको उत्पन्न करने वाले और उनका पालन करने वाले पिता भी आप हैं, उनके पूजनीय भी आप हैं तथा उनको शिक्षा देने वाले महान गुरु भी आप ही हैं- ‘त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।’ ‘गुरुर्गरीयान्’ का तात्पर्य है कि मनुष्य मात्र को व्यवहार और परमार्थ में जहाँ-कहीं भी गुरुजनों से शिक्षा मिलती है, उन शिक्षा देने वाले गुरुओं के भी महान गुरु आप ही हैं अर्थात मात्र शिक्षा का, मात्र ज्ञान का उद्गम-स्थान आप ही हैं। ‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेप्यप्रतिमप्रभाव’- इस त्रिलोकी में जब आपके समान भी कोई नहीं है, कोई होगा नहीं और कोई हो सकता ही नहीं, तब आपसे अधिक विलक्षण कोई हो ही कैसे सकता है? इसलिए आपका प्रभाव अतुलनीय है, उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती।
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