श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्र । अर्थ- हे महात्मन! गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा के भी आदिकर्ता आपके लिए (वे सिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें? क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षर स्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और सत्-असत् से पर भी जो कुछ है, वह भी आप ही हैं। व्याख्या- ‘कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्र’- आदिरूप से प्रकट होने वाले महान स्वरूप आपको (पूर्वोक्त सिद्धगण) नमस्कार क्यों न करें? नमस्कार दो को किया जाता है- (1) जिनसे मनुष्य को शिक्षा मिलती है, प्रकाश मिलता है, ऐसे आचार्य, गुरुजन आदि को नमस्कार किया जाता है और (2) जिनसे हमारा जन्म हुआ है, उन माता-पिता को तथा आयु, विद्या आदि में अपने से बड़े पुरुषों को नमस्कार किया जाता है। अर्जुन कहते हैं कि आप गुरुओं के भी गुरु हैं- ‘गरीयसे’[1] और आप सृष्टि की रचना करने वाले पितामह ब्रह्मा जी को भी उत्पन्न करने वाले हैं- ‘ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।’ अतः सिद्ध महापुरुष आपको नमस्कार करें, यह उचित ही है। ‘अनन्त’- आपको देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि किसी की भी दृष्टि से देखें, आपका अंत नहीं आता। तात्पर्य है कि आपको देश की दृष्टि से देखें तो आपका कहाँ से आरंभ हुआ है और कहाँ जाकर अंत होगा- ऐसा है ही नहीं। काल की दृष्टि से देखा जाए तो आप कब से हैं और कब तक रहेंगे- इसका कोई अंत नहीं है। वस्तु, व्यक्ति आदि की दृष्टि से देखें तो आप वस्तु, व्यक्ति आदि कितने रूपों में हैं- इसका कोई आदि और अंत नहीं है। सब दृष्टियों से आप अनन्त-ही-अनन्त हैं। बुद्धि आदि कोई भी दृष्टि आपको देखने जाती है तो वह दृष्टि खत्म हो जाती है, पर आपका अंत नहीं आता। इसलिए सब तरफ से आप सीमारहित हैं, अपार हैं, अगाध हैं। ‘देवेश’- इंद्र, वरुण आदि अनेक देवता हैं, जिनका शास्त्रों में वर्णन आता है। उन सब देवताओं के आप मालिक हैं, नियन्ता हैं, शासक हैं। इसलिए आप ‘देवेश’ हैं। ‘जगन्निवास’- अनन्त सृष्टियाँ आपके किसी अंश में विस्तृत रूप से निवास कर रही हैं, तो भी आपका वह अंश पूरा नहीं होता, प्रत्युत ख़ाली ही रहता है। ऐसे आप असीम ‘जगन्निवास’ हैं। ‘त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्’- आप अक्षर स्वरूप हैं।[2] जिसकी स्वतः सिद्ध स्वतंत्र सत्ता है, वह ‘सत्’ भी आप हैं; और जिसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है, प्रत्युत सत् के आश्रित ही जिसकी सत्ता प्रतीत होती है, वह ‘असत्’ भी आप ही हैं। जो सत् और असत्- दोनों से विलक्षण है, जिसका किसी तरह से निर्वचन नहीं हो सकता, मन-बुद्धि, इंद्रियाँ आदि किसी से भी जिसकी कल्पना नहीं कर सकते अर्थात जो संपूर्ण कल्पनाओं से सर्वथा अतीत है, वह भी आप ही हैं। तात्पर्य यह हुआ कि आपसे बढ़कर दूसरा कोई है ही नहीं, हो सकता नहीं और होना संभव भी नहीं- ऐसे आपको नमस्कार करना उचित ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पतंजलि महाराज ने कहा है कि वे परमात्मा पहले-से-पहले जो ब्रह्मा आदि प्रकट हुए हैं, उनके भी गुरु हैं- ‘पूर्वोवामपि गुरुः।’ (योगदर्शन 1।26)
- ↑ इसी अक्षर ब्रह्म को अर्जुन ने पहले ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ (गीता 11:18) पदों और यहाँ ‘त्वमक्षरम्’ पद से कहा है।
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