श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
जैसे, भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया तो उन्होंने ग्वालबालों से कहा कि तुम लोग भी पर्वत के नीचे अपनी-अपनी लाठियाँ लगाओ। सभी ग्वालबालों ने अपनी-अपनी लाठियाँ लगायीं। सभी ग्वालबालों ने अपनी-अपनी लाठियाँ लगायीं और वे ऐसा समझने लगे कि हम सबकी लाठियाँ लगने से ही पर्वत ऊपर ठहरा हुआ है। वास्तव में पर्वत ठहरा हुआ था भगवान के बायें हाथ की छोटी अंगुली के नख पर! ग्वालबालों में जब इस तरह का अभिमान हुआ, तब भगवान ने अपनी अंगुली थोड़ी सी नीचे कर ली। अंगुली नीचे करते ही पर्वत नीचे आने लगा तो ग्वालबालों ने पुकारकर भगवान से कहा- ‘अरे दादा! मर! मरे!! मरे!!!’ भगवान ने कहा कि जोर से शक्ति लगाओ। पर वे सब-के-सब एक साथ अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी पर्वत को ऊँचा नहीं कर सके। तब भगवान ने पुनः अपनी अंगुली से पर्वत को ऊँचा कर दिया। ऐसे ही साधक को परमात्मप्राप्ति के लिए अपने बल, बुद्धि, योग्यता आदि को तो पूरा-का-पूरा लगाना चाहिए, उसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रखनी चाहिए, पर परमात्मा का अनुभव होने में बल, उद्योग, योग्यता, तत्परता, जितेन्द्रियता, परिश्रम आदि को कारण मानकर अभिमान नहीं करना चाहिए। उसमें तो केवल भगवान की कृपा को ही कारण मानना चाहिए। भगवान ने भी गीता में कहा है कि शाश्वत अविनाशी पद की प्राप्ति मेरी कृपा से होगी- ‘मत्प्रसादादवाप्रोति शाश्वतं पदमव्ययम्’[2], और संपूर्ण विघ्नों को मेरी कृपा से तर जाएगा- ‘मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’।[3] इससे यह सिद्ध हुआ कि केवल निमित्तमात्र बनने से साधक को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उभौ मे दक्षिणौ पाणी गाण्डीवस्य विकर्षणे। तेन देवमनुष्येषु सव्यासाचीति मां विदुः ।। (महा. विराट. 44।19)
- ↑ गीता 18:56
- ↑ गीता 18:58
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज