श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति । अर्थ- जैसे नदियों के बहुत-से जल के प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्र के सम्मुक दौड़ते हैं, ऐसे ही वे संसार के महान शूरवीर आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। व्याख्या- ‘यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति’- मूल में जल मात्र समुद्र का है। वही जल बादलों के द्वारा वर्षारूप में पृथ्वी पर बरसकर झरने, नाले आदि को लेकर नदियों का रूप धारण करता है। उन नदियों के जितने वेग हैं, प्रवाह हैं, वे सभी स्वाभाविक ही समुद्र की तरफ दौड़ते हैं। कारण कि जल का उद्गम स्थान समुद्र ही है। वे सभी जल-प्रवाह समुद्र में जाकर अपने नाम और रूप को छोड़कर अर्थात गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नामों को और प्रवाह के रूप को छोड़कर समुद्ररूप ही हो जाते हैं। फिर वे जल-प्रवाह समुद्र के सिवाय अपना कोई अलग, स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखते। वास्तव में तो उनका स्वतंत्र अस्तित्व पहले भी नहीं था, केवल नदियों के प्रवाहरूप में होने के कारण वे अलग दिखते थे। ‘तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति’- नदियों की तरह मात्र जीव नित्य सुख की अभिलाषा को लेकर परमात्मा के सम्मुख ही दौड़ते हैं। परंतु भूल से असत, नाशवान शरीर के साथ संबंध मान लेने से वे सांसारिक संग्रह और संयोगजन्य सुख में लग जाते हैं तथा अपना अलग अस्तित्व मानने लगते हैं। उन जीवों में वे ही वास्तविक शूरवीर हैं, जो सांसारिक संग्रह और सुखभोगों में न लगकर, जिसके लिए शरीर मिला है, उस परमात्मप्राप्ति के मार्ग में ही तत्परता से लगे हुए हैं। ऐसे युद्ध में आये हुए भीष्म, द्रोण आदि नरलोकवीर आपके प्रकाशमय (ज्ञानस्वरूप) मुखों में प्रविष्ट हो रहे हैं। सामने दिखने वाले लोगों में परमात्मप्राप्ति चाहने वाले लोग विलक्षण हैं और बहुत थोड़े हैं। अतः उनके लिए परोक्षवाचक ‘अमी’ (वे) पद दिया गया है। संबंध- जो राज्य और प्रशंसा के लोभ से युद्ध में आये हैं और जो सांसारिक संग्रह और भोगों की प्राप्ति में लगे हुए हैं- ऐसे पुरुषों का विराट रुप में पतंगों के दृष्टान्त से प्रवेश करने का वर्णन अर्जुन आगे के श्लोकों में करते हैं। |
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