श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति । अर्थ- वे ही देवताओं के समुदाय आप में प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमें से कई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नामों और गुणों का कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धों के समुदाय ‘कल्याण हो! मंगल हो!’ ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों के द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं। व्याख्या- ‘अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति’- अर्जुन स्वर्ग में गए थे, उस समय उनका जिन देवताओं से परिचय हुआ था, उन्हीं देवताओं के लिए यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि वे ही देवतालोग आपके स्वरूप में प्रविष्ट होते हुए दिख रहे हैं। ये सभी देवता आपसे ही उत्पन्न होते हैं, आपमें ही स्थित रहते हैं और आपमें ही प्रविष्ट होते हैं। ‘केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति’- परंतु उन देवताओं में से जिनकी आयु अभी ज्यादा शेष है, ऐसे आजान देवता (विराट रूप के अंतर्गत) नृसिंह आदि भयानक रूपों को देखकर भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम, रूप, लीला गुण आदि का गान कर रहे हैं। यद्यपि देवता लोग नृसिंह आदि अवतारों को देखकर और कालरूप मृत्यु से भयभीत होकर ही भगवान का गुणगान कर रहे हैं;[1] परंतु अर्जुन को ऐसा लग रहा है कि वे विराट रूप भगवान को देखकर ही भयभीत होकर स्तुति कर रहे हैं। ‘स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वा स्तुतिभिः पुष्कलाभिः’- सप्तर्षियों, देवर्षियों, महर्षियों, सनकादिकों और देवताओं के द्वारा स्वस्तिवाचन[2] हो रहा है और बड़े उत्तम-उत्तम स्तोत्रों के द्वारा आपकी स्तुतियाँ हो रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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