श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
देखने, सुनने और समझने में आने वाला संपूर्ण संसार भगवान के दिव्य विराट रूप का ही एक छोटा सा अंग है। संसार में जो जड़ता, परिवर्तनशीलता, अदिव्यता दिखती है, वह वस्तुतः दिव्य विराट रूप की ही एक झलक है, एक लीला है। विराट रूप की जो दिव्यता है, उसकी तो स्वतंत्र सत्ता है, पर संसार की जो अदिव्यता है, उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। अर्जुन को तो दिव्यदृष्टि से भगवान का विराट रूप दिखा, पर भक्तों को भावदृष्टि से यह संसार भगवत्स्वरूप दिखता है- ‘वासुदेवः सर्वम्।’ तात्पर्य है कि जैसे बचपन में बालक का कंकड़-पत्थरों में जो भाव रहता है, वैसा भाव बड़े होने पर नहीं रहता; बड़े होने पर कंकड़-पत्थर उसे आकृष्ट नहीं करते, ऐसे ही भोगदृष्टि रहने पर संसार में जो भाव रहता है, वह भाव भोगदृष्टि के मिटने पर नहीं रहता। जिनकी भोगदृष्टि होती है, उनको तो संसार सत्य दिखता है, पर जिनकी भोगदृष्टि नहीं है, ऐसे महापुरुषों को संसार भगवत्स्वरूप ही दिखता है। जैसे एक ही स्त्री बालक को माँ के रूप में, पिता को पुत्री के रूप में, पति को पत्नी के रूप में सिंह को भोजन के रूप में दिखती है, ऐसे ही यह संसार ‘चर्मदृष्टि’ से सच्चा, ‘विवेकदृष्टि’ से परिवर्तनशील, ‘भावदृष्टि’ से भगवत्स्वरूप और ‘दिव्यदृष्टि’ से विराट रूप का ही एक छोटा-सा अंग दिखता है। संबंध- अब अर्जुन की दृष्टि के सामने (विराट रूप में) स्वर्गादि लोकों का दृश्य आता है और वे उसका वर्णन आगे के दो श्लोकों में करते हैं। |
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