श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् । अर्थ- आपको मैं आदि, मध्य और अंत से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चंद्र और सूर्यरूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेज से संसार को संतप्त करते हुए देख रहा हूँ। व्याख्या- ‘अनादिमध्यान्तम्’- आप आदि, मध्य और अंत से रहित हैं अर्थात आपकी कोई सीमा नहीं है। सोलहवें श्लोक में भी अर्जुन ने कहा है कि मैं आपके आदि, मध्य और अंत को नहीं देखता हूँ। वहाँ तो ‘देशकृत’ अनन्तता का वर्णन हुआ है और यहाँ ‘कालकृत’ अनन्तता का वर्णन हुआ है। तात्पर्य है कि देशकृत, कालकृत, वस्तुकृत आदि किसी तरह से भी आपकी सीमा नहीं है। संपूर्ण देश, काल आदि आपके अंतर्गत हैं, फिर आप देश, काल आदि के अंतर्गत कैसे आ सकते हैं? अर्थात देश, काल आदि किसी के भी आधार पर आपको मापा नहीं जा सकता। ‘अनन्तवीर्यस्’- आपमें अपार पराक्रम, सामर्थ्य, बल और तेज है। आप अनन्त, असीम, शक्तिशाली हैं। ‘अनन्तबाहुम्’[1]- आपकी कितनी भुजाएँ हैं, इसकी कोई गिनती नहीं हो सकती। आप अनन्त भुजाओं वाले हैं। ‘शशिसूर्यनेत्रम्’- संसार मात्र को प्रकाशित करने वाले जो चंद्र और सूर्य हैं, वे आपके नेत्र हैं। इसलिए संसार मात्र को आपसे ही प्रकाश मिलता है। ‘दीप्तहुताशवक्त्रम्’- यज्ञ, होम आदि में जो कुछ अग्नि में हवन किया जाता है, उन सबको ग्रहण करने वाले देदीप्यमान अग्निरूप मुख वाले आप ही हैं। ‘स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्’- अपने तेज से संपूर्ण विश्व को तपाने वाले आप ही हैं। तात्पर्य यह है कि जिन-जिन व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों आदि से प्रतिकूलता मिल रही है, उन-उनसे संपूर्ण प्राणी संतप्त हो रहे हैं। संतप्त करने वाले और संतप्त होने वाले- दोनों एक ही विराट रूप के अंग हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सोलहवें श्लोक में अर्जुन ने ‘अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम्’ कहा और यहाँ भी ‘अनन्तबाहुम्’ कहते हैं, तो इसमें पुनरुक्ति-सी दिखती है। परंतु वास्तव में यह पुनरुक्ति नहीं है; क्योंकि वहाँ विराट रूप भगवान के देवरूप का वर्णन है और यहाँ उग्ररूप का वर्णन है। उग्ररूप का वर्णन होने से ही यहाँ ‘विश्वमिदं तपन्तम्’ और आगे के (बीसवें) श्लोक में ‘दृष्टाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितम्’ पद आए हैं।
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