श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । अर्थ- आप ही जानने योग्य परम अक्षर[1] हैं, आप ही इस संपूर्ण विश्व के परम आश्रय हैं, आप ही सनातन धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं- ऐसा मैं मानता हूँ। व्याख्या- ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’- वेदों, शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों, संतों की वाणियों और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों द्वारा जानने योग्य जो परमानन्दस्वरूप अक्षरब्रह्म है, जिसको निर्गुण-निराकार कहते हैं, वे आप ही हैं। ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’- देखने, सुनने और समझने में जो कुछ संसार आता है, उस संसार के परम आश्रय, आधार आप ही हैं। जब महाप्रलय होता है, तब संपूर्ण संसार कारण सहित आप में ही लीन होता है और फिर महासर्ग के आदि में आपसे ही प्रकट होता है। इस तरह आप इस संसार के परम निधान हैं। [इन पदों से अर्जुन सगुण निराकार का वर्णन करते हुए स्तुति करते हैं।] ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’- जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब आप ही अवतार लेकर अधर्म का नाश करके सनातन धर्म की रक्षा करते हैं। [इन पदों से अर्जुन सगुण-साकार का वर्णन करते हुए स्तुति करते हैं।] ‘अव्ययः सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे’- अव्यय अर्थात अविनाशी, सनातन, आदिरहित, सदा रहने वाले उत्तम पुरुष आप ही हैं, ऐसा मैं मानता हूँ। संबंध- पंद्रहवें से अठारहवें श्लोक तक आश्चर्यचकित करने वाला देवरूप का वर्णन करके अब आगे के दो श्लोकों में अर्जुन उस विश्वरूप की उग्रता, प्रभाव, सामर्थ्य का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अक्षर ब्रह्म
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