श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । अर्थ- मैं आपको किरीट, गदा, चक्र (तथा शंख और पद्म) धारण किए हुए देख रहा हूँ। आपको तेज की राशि, सब ओर प्रकाश करने वाले, देदीप्यमान अग्नि तथा सूर्य के समान कान्ति वाले, नेत्रों के द्वारा कठिनता से देखे जाने योग्य और सब तरफ से अप्रमेयस्वरूप देख रहा हूँ। व्याख्या- ‘किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च’- आपको मैं किरीट, गदा और चक्र धारण किए हुए देख रहा हूँ। यहाँ ‘च’ पद से शंख और पद्म को भी ले लेना चाहिए। इसका तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि अर्जुन को विश्वरूप में भगवान विष्णु का चतुर्भुज रूप भी दिख रहा है। ‘तेजोराशिम्’- आप तेज की राशि है, मानो तेज का समूह का समूह (अनन्त तेज) इकट्ठा हो गया हो। इसका पहले संजय ने वर्णन किया है कि आकाश में हजारों सूर्य एक साथ उदित होने पर भी भगवान के तेज की बराबरी नहीं कर सकते।[1] ऐसे आप प्रकाश स्वरूप हैं। ‘सर्वतो दीप्तिमन्तम्’- स्वयं प्रकाश स्वरूप होने से आप चारों तरफ प्रकाश कर रहे हैं। ‘पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद् दीप्तानलार्क द्युतिमप्रमेयम्’- खूब देदीप्यमान अग्नि और सूर्य के समान आपकी कान्ति हैं। जैसे सूर्य के तेज प्रकाश के सामने आँखें चौंध जाती हैं, ऐसे ही आपको देखकर आखें चौंध जाती हैं। अतः आप कठिनता से देखे जाने योग्य हैं। आपको ठीक तरह से देख नहीं सकते। [यहाँ एक बड़े आश्चर्य की बात है कि भगवान ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि दी थी, पर वे दिव्यदृष्टि वाले अर्जुन भी विश्वरूप को देखने में पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं। ऐसा देदीप्यमान भगवान का स्वरूप है।] आप सब तरफ से अप्रमेय (अपरिमित) हैं अर्थात आप प्रमा (माप) के विषय नहीं है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि आदि कोई भी प्रमाण आपको बताने में काम नहीं करता; क्योंकि प्रमाणों में शक्ति आपकी ही है। संबंध- आगे के श्लोक में अर्जुन भगवान को निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार और सगुण-साकार रूप में देखते हुए भगवान की स्तुति करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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