श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
जैसे दसवें अध्याय में भगवान से ‘जो मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है, उसका मेरे में दृढ़ भक्तियोग हो जाता है’ इस बात को सुनकर ही अर्जुन ने भगवान की स्तुति प्रार्थना करके विभूतियाँ पूछी थीं, ऐसे ही भगवान से ‘मेरे एक अंश में सारा संसार स्थित है’ इस बात को सुनकर अर्जुन ने विश्वरूप दिखाने के लिए प्रार्थना की है। अगर भगवान ‘अथवा’ कहकर अपनी ही तरफ से ‘मेरे किसी एक अंश में संपूर्ण जगत स्थित है’ यह बात न कहते, तो अर्जुन विश्वरूप देखने की इच्छा ही नहीं करते। जब इच्छा ही नहीं करते, तो फिर विश्वरूप दिखाने के लिए प्रार्थना कैसे करते? और जब प्रार्थना ही नहीं करते, तो फिर भगवान अपना विश्वरूप कैसे दिखाते? इससे सिद्ध होता है कि भगवान कृपापूर्वक अपनी ओर से ही अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाना चाहते हैं। ऐसी ही बात गीता के आरंभ में भी आयी है। जब अर्जुन ने भगवान से दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने के लिए कहा, तब भगवान ने रथ को पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने खड़ा किया और अर्जुन से कहा- इन कुरुवंशियों को देखो- ‘कुरुन् पश्य’[1] इसका यही आशय मालूम देता है कि भगवान कृपापूर्वक गीता प्रकट करना चाहते हैं। कारण कि यदि भगवान ऐसा न कहते तो अर्जुन को शोक नहीं होता और गीता का उपदेश आरंभ नहीं होता। तात्पर्य है कि भगवान ने अपनी तरफ से कृपा करके ही गीता को प्रकट किया है। संबंध- भगवान ने तीन श्लोक में चार बार ‘पश्य’ पद से अपना रूप देखने के लिए आज्ञा दी। इसके अनुसार ही अर्जुन आँखें फाड़-फाड़कर देखते हैं और देखना चाहते भी हैं; परंतु अर्जुन को कुछ भी नहीं दिखता। इसलिए अब भगवान आगे के श्लोक में अर्जुन को न दिखने का कारण बताते हुए उनके दिव्यचक्षु देकर विश्वरूप देखने की आज्ञा देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 1:25
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