श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । अर्थ- अथवा हे अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है? मैं अपने किसी एक अंश से संपूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ। व्याख्या- ‘अथवा’ - यह अव्यय-पद देकर भगवान अर्जुन से मानो यह कह रहे हैं कि तुमने जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने उत्तर दिया ही है; अब मैं अपनी तरफ से तेरे लिए एक विशेष महत्त्व की सार बात बताता हूँ। ‘बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन’- भैया अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार बहुत जानने की क्या जरूरत है? मैं घोड़ों की लगाम और चाबुक पकड़े तेरे सामने बैठा हूँ। दिखने में तो मैं छोटा सा दिखता हूँ, पर मेरे इस शरीर के किसी एक अंश में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड महासर्ग और महाप्रलय- दोनों अवस्थों में मेरे में स्थित हैं। उन सबको लेकर मैं तेरे सामने बैठा हूँ और तेरी आज्ञा का पालन करता हूँ! इसलिए जब मैं स्वयं तेरे सामने हूँ, तब तेरे लिए बहुत-सी बातें जानने की क्या जरूरत है? ‘विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्’- मैं इस संपूर्ण जगत को एक अंश से व्याप्त करके स्थित हूँ- यह कहने का तात्पर्य है कि भगवान के किसी भी अंश में अनन्त सृष्टियाँ विद्यमान हैं- ‘रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्माण्ड’।[1] परंतु उन सृष्टियों से भगवान का कोई अंश, भाग रुका नहीं है अर्थात भगवान के किसी अंश में उन सब सृष्टियों के रहने पर भी वहाँ ख़ाली जगह पड़ी है। जैसे, प्रकृति का बहुत क्षुद्र अंश हमारी बुद्धि है। बुद्धि में कई भाषाओं का, कई लिपियों का, कई कलाओं का ज्ञान होने पर भी हम ऐसा नहीं कह सकते कि हमारी बुद्धि अनेक भाषाओं आदि के ज्ञान से भर गयी है; अतः अब दूसरी भाषा, लिपि आदि जानने के लिए जगह नहीं रही। तात्पर्य है कि बुद्धि में अनेक भाषाओं आदि का ज्ञान होने पर भी बुद्धि में जगह ख़ाली ही रहती है और कितनी ही भाषाएं आदि सीखने पर भी बुद्धि भर नहीं सकती। इस प्रकार जब प्रकृति का छोटा अंश बुद्धि भी अनेक भाषाओं आदि के ज्ञान से नहीं भरती, तो फिर प्रकृति से अतीत, अनन्त, असीम और अगाध भगवान का कोई अंश अनन्त सृष्टियों से कैसे भर सकता है? वह तो बुद्धि की अपेक्षा भी विशेष रूप से ख़ाली रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 1।201
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