श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप । अर्थ- हे परंतप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियों का जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेप से कहा है। व्याख्या- ‘मम दिव्यानां[1] विभूतीनाम्’- ‘दिव्य’ शब्द अलौकिकता, विलक्षणता का द्योतक है। साधक का मन जहाँ चला जाए, वहीं भगवान का चिन्तन करने से यह दिव्यता वहीं प्रकट हो जाएगी; क्योंकि भगवान के समान दिव्य कोई है ही नहीं। देवता जो दिव्य कहे जाते हैं, वे भी नित्य ही भगवान के दर्शन की इच्छा रखते हैं,- ‘नित्यं दर्शनकाङ्चिंणः’।[2] इससे यही सिद्ध होता है कि दिव्यातिदिव्य तो एक भगवान ही हैं। इसलिए भगवान की जितनी भी विभूतियाँ हैं, तत्त्व से वे सभी दिव्य हैं। परंतु साधक के सामने उन विभूतियों की दिव्यता तभी प्रकट होती हैं, जब उसका उद्देश्य केवल एक भगवतप्राप्ति का ही होता है और भगवत्तत्त्व जानने के लिए राग-द्वेष से रहित होकर उन विभूतियों में केवल भगवान का ही चिन्तन करता है। ‘नान्तोऽस्ति’- भगवान की दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। कारण कि भगवान अनन्त हैं तो उनकी विभूतियाँ, गुण, लीलाएँ आदि भी अनन्त हैं- ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’।[3] इसलिए भगवन ने विभूतियों के उपक्रम में और उपसंहार में- दोनों ही जगह कहा है कि मेरी विभूतियों के विस्तार का अंत नहीं है। श्रीमद्भागवत में भगवान ने अपनी विभूतियों के विषय में कहा है कि ‘मेरे द्वारा परमाणुओं की संख्या समय में गिनी जा सकती है, पर करोड़ों ब्रह्माण्डों को रचने वाली मेरी विभूतियों का अंत नहीं पाया जा सकता[4]’ भगवान अनन्त, असीम और अगाध हैं। संख्या की दृष्टि से भगवान ‘अनन्त’ हैं अर्थात उनकी गणना परार्द्ध तक नहीं हो सकती। सीमा की दृष्टि से भगवान ‘असीम’ हैं। सीमा दो तरह की होती है- कालकृत और देशकृत। अमुक समय पैदा हुआ और अमुक समय तक रहेगा- यह कालकृत सीमा हुई; और यहाँ से लेकर वहाँ तक- यह देशकृत सीमा हुई। भगवान ऐसे सीमा में बँधे हुए नहीं है। तल की दृष्टि से भगवान ‘अगाध’ हैं। अगाध शब्द में ‘गाध’ नाम ‘तल’ का है; जैसे, जल में नीचे का तल होता है। अगाध का अर्थ हुआ- जिसका तल है ही नहीं, ऐसा अथाह गहरा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्जुन ने पहले प्रार्थना के रूप में पूछा था- ‘वक्तुमर्हस्यशेषेम दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ (गीता 10:16)। भगवान ने विभूतियों का वर्णन आरंभ करते हुए कहा- ‘हंत ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ (10।19)। और यहाँ उसका उपसंहार करते हुए भगवान कहते हैं- ‘नान्तोऽस्ति ममः दिव्यानां विभूतीनां परंतप’ (10।40)। इस तरह प्रार्थना (प्रश्न) में, उपक्रम में और उपसंहार में- तीनों जगह ‘दिव्य’ पद की एकता है।
- ↑ गीता 11:52
- ↑ मानस 1।140।5
- ↑ संख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया। न तथा मे विभूतीनां सृजतोऽण्डानि कोटिशः ।। (श्रीमद्भा. 11।16।39)।
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