श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम । अर्थ- दमन करने वालों में दंडनीति और विजय चाहने वालों में नीति मैं हूँ। गोपनीय भावों में मौन और ज्ञानवानों में ज्ञान मैं हूँ। व्याख्या- ‘दंडों दमयतामस्मि’- दुष्टों को दुष्टता से बचाकर सन्मार्ग पर लाने के लिए दंडनीति मुख्य हैं। इसलिए भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। ‘नीतिरस्मि जिगीषताम्’- नीति का आश्रय लेने से ही मनुष्य विजय प्राप्त करता है और नीति से ही विजय ठहरती है। इसलिए नीति को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘मौनं चैवास्मि गुह्यानाम’- गुप्त रखने योग्य जितने भाव हैं, उन सबमें मौन[1] मुख्य है; क्योंकि चुप रहने वाले के भावों को हरेक व्यक्ति नहीं जान सकता। इसलिए गोपनीय भावों में भगवान ने मौन को अपनी विभूति बताया है। ‘ज्ञानं ज्ञानवतामहम्’- संसार में कला-कौशल आदि को जानने वालों में जो ज्ञान (जानकारी) है, वह भगवान की विभूति है। तात्पर्य है कि ऐसा ज्ञान अपने में और दूसरों में देखने में आये, तो इसे भगवान की ही विभूति माने। इन सब विभूतियों में जो विलक्षणता है, वह इनकी व्यक्तिगत नहीं है, प्रत्युत परमात्मा की ही है। इसलिए परमात्मा की तरफ ही दृष्टि जानी चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वाणी का संयम अर्थात चुप रहना
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