श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
कीर्ति, श्री और वाक्- ये तीन प्राणियों के बाहर प्रकट होने वाली विशेषताएँ हैं तथा स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा- ये चार प्राणियों के भीतर प्रकट होने वाली विशेषताएँ हैं। इन सातों विशेषताओं को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। यहाँ जो विशेष गुणों को विभूति रूप से कहा है, उसका तात्पर्य केवल भगवान की तरफ लक्ष्य कराने में है। किसी व्यक्ति में ये गुण दिखाई दें तो उस व्यक्ति की विशेषता न मानकर भगवान की ही विशेषता माननी चाहिए और भगवान की ही याद आनी चाहिए। यदि ये गुण अपने में दिखाई दे तो इनको भगवान के ही मानने चाहिए, अपने नहीं। कारण कि यह दैवी (भगवान की) संपत्ति है, जो भगवान से ही प्रकट हुई है। इन गुणों को अपना मान लेने से अभिमान पैदा होता है, जिससे पतन हो जाता है; क्योंकि अभिमान संपूर्ण आसुरी-संपत्ति का जनक है। साधकों को जिस किसी में जो कुछ विशेषता, सामर्थ्य दीखे, उसे उस वस्तु-व्यक्ति का न मानकर भगवान की ही मानना चाहिए। जैसे, लोमश ऋषि के शाप से काकभुशुंडी ब्राह्मण से चांडाल पक्षी बन गए, पर उनको न भय हुआ, न किसी प्रकार की दीनता आयी और न कोई विचार ही हुआ, प्रत्युत उनको प्रसन्नता ही हुई। कारण कि उन्होंने इसमें ऋषि का दोष न मानकर भगवान की प्रेरणा ही मानी- सुनु खगेस नहीं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस विभूषन ।। (मानस 7।113।1)। ऐसे ही मनुष्य सब वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि में मूल में भगवान को देखने लगे तो हर समय आनंद-ही-आनंद रहेगा। |
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