श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च । अर्थ- अक्षरों में अकार और समासों में द्वंद्व समास मैं हूँ। अक्षयकाल अर्थात काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं हूँ। व्याख्या- ‘अक्षराणामकारोऽस्मि’- वर्णमाला में सर्वप्रथम अकार आता है। स्वर और व्यंजन- दोनों में अकार मुख्य है। अकार के बिना व्यंजनों का उच्चारण नहीं होता। इसलिए अकार को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘द्वंद्वः सामासिकस्य च’- जिससे दो या दो से अधिक शब्दों को मिलाकर एक शब्द बनता है, उसको समास कहते हैं। समास कई तरह के होते हैं। उनमें अव्ययीभाव, तत्पुरुष, बहुब्रीहि और द्वंद्व- ये चार मुख्य हैं। दो शब्दों के समास में यदि पहला शब्द प्रधानता रखता है तो वह ‘अव्ययीभाव समास’ होता है। यदि आगे का शब्द प्रधानता रखता है तो वह ‘तत्पुरुष समास’ होता है। यदि दोनों शब्द अन्य के वाचक होते हैं तो वह ‘बहुब्रीहि समास’ होता है। यदि दोनों शब्द प्रधानता रखते हैं तो वह ‘द्वंद्व समास’ होता है। द्वंद्व समास में दोनों शब्दों का अर्थ मुख्य होने से भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। ‘अहमेवाक्षयः कालः’- जिस काल का कभी क्षय नहीं होता अर्थात जो कालातीत है और अनादि-अनन्तरूप है, वह काल भगवान ही हैं। सर्ग और प्रलय की गणना तो सूर्य से होती है, पर महाप्रलय में जब सूर्य भी लीन हो जाता है, तब समय की गणना परमात्मा से ही होती है।[1] इसलिए परमात्मा अक्षय काल हैं। तीसवें श्लोक के ‘कालः कलयतामहम्’ पदों में आये ‘काल’ में और यहाँ आए ‘अक्षय काल’ में क्या अंतर है? वहाँ का जो ‘काल’ है, वह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, बदलता रहता है। वह काल ज्योतिष-शास्त्र का आधार है और उसी से संसारमात्र के समय की गणना होती है। परंतु यहाँ का जो ‘अक्षय काल’ है, वह परमात्मस्वरूप होने से कभी बदलता नहीं। वह अक्षय काल सबको खा जाता है और स्वयं ज्यों-का-त्यों ही रहता है अर्थात इसमें कभी कोई विकार नहीं होता। उसी अक्षय काल को यहाँ भगवान ने अपनी विभूति बताया है। आगे ग्यारहवें अध्याय में भी भगवान ने ‘कालोऽस्मि’[2] पद से अक्षय काल को अपना स्वरूप बताया है। ‘धाताहं विश्वतोमुखः’- सब ओर मुख वाले होने से भगवान की दृष्टि सभी प्राणियों पर रहती है। अतः सबका धारण-पोषण करने में भगवान बहुत सावधान रहते हैं। किसी प्राणी को कौन-सी वस्तु कब मिलनी चाहिए, उसका भगवान खूब खयाल रखते हैं और समय पर उस वस्तु को पहुँचा देते हैं। इसलिए भगवान ने अपना विभूति रूप से वर्णन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्यात्मविद्या और राजविद्या- इन दोनों में अंतर है। अध्यात्मविद्या में निर्गुण-स्वरूप की मुख्यता और राजविद्या में सगुण-स्वरूप की मुख्यतः है। संसार का अभाव करके निर्गुण परमात्मा को जानना अध्यात्मिविद्या है। सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि में व्यापक रूप से नित्य-निरंतर रहने वाले सगुण परमात्मा को जानना राजविद्या है।
- ↑ गीता 11:32
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