श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् । अर्थ- पवित्र करने वालों में वायु और शास्त्रधारियों में राम मैं हूँ। जल जन्तुओं में मगर मैं हूँ। बहने वाले स्रोतों में गंगा जी मैं हूँ। व्याख्या- ‘पवनः पवतामस्मि’- वायु से ही सब चीजें पवित्र होती है। वायु से ही नीरोगता आती है। अतः भगवान ने पवित्र करने वालों में वायु को अपनी विभूति बताया है। ‘रामः शस्त्रभृतामहम्’- ऐसे तो राम अवतार हैं, साक्षात भगवान हैं, पर जहाँ शस्त्रधारियों की गणना होती है, उन सबमें राम श्रेष्ठ हैं। इसलिए भगवान ने राम को अपनी विभूति बताया है। ‘झषाणां मकरश्चास्मि’- जल जन्तुओं में मगर सबसे बलवान है। इसलिए जलचरों में मगर को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘स्रोतसामस्मि जाह्वी’- प्रवाह रूप से बहने वाले जितने भी नद, नदी, नाले, झरने हैं, उन सबमें गंगा जी श्रेष्ठ हैं। ये भगवान की खास चरणोदक हैं। गंगा जी अपने दर्शन, स्पर्श आदि से दुनिया उद्धार करने वाली हैं। मरे हुए मनुष्यों की अस्थियाँ गंगा जी में डालने से उनकी सद्गति हो जाती है। इसलिए भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है। वास्तव में इन विभूतियों की मुख्यता न मानकर भगवान की ही मुख्यता माननी चाहिए। कारण कि इन सबमें जो विशेषता महत्ता देखने में आती है वह भगवान से ही आयी है। सत्रहवें श्लोक में अर्जुन के दो प्रश्न थे- पहला, भगवान को जानने का (मैं आपको कैसे जानूँ) और दूसरा, जानने के उपाय का (किन-किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ)। इन दोनों में से उपाय तो है- विभूतियों में भगवान का चिन्तन करना और उस चिन्तन का फल (परिणाम) होगा- सब विभूतियों के मूल में भगवान को तत्त्व से जानना। जैसे, शस्त्रधारियों में श्रीराम को और वृष्णियों में वासुदेव (अपने) को भगवान ने अपनी विभूति बताया। यह तो उस समुदाय में विभूति रूप से श्रीराम का और वासुदेव का चिन्तन करने के लिए बताया और उनके चिन्तन का फल होगा- श्रीराम को और वासुदेव को तत्त्व से भगवान जान जाना। यह चिन्तन करना और भगवान को तत्त्व से जानना सभी विभूतियों के विषय में समझना चाहिए। संसार में जहाँ-कहीं भी जो कुछ विशेषता, विलक्षणता, सुंदरता दिखती है, उसको वस्तु-व्यक्ति की मानने से फँसावट होती है अर्थात मनुष्य उस विशेषता आदि को संसार की मानकर उसमें फँस जाता है। इसलिए भगवान ने यहाँ मनुष्य के लिए यह बताया है कि तुम लोग उस विशेषता सुंदरता आदि को वस्तु-व्यक्ति की मत मानो, प्रत्युत मेरी और मेरे से ही आयी हुई मानो। ऐसा मानकर मेरा चिन्तन करोगे तो तुम्हारा संसार का चिन्तन तो छूट जाएगा और उस जगह मैं आ जाऊँगा। इसका परिणाम यह होगा कि तुम लोग मेरे को तत्त्व से जान जाओगे। मेरे को तत्त्व से जानने पर मेरे में तुम्हारी दृढ़ भक्ति हो जाएगी।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज