श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । अर्थ- जिन विभूतियों से आप इन संपूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियों का संपूर्णता से वर्णन करने में आप ही समर्थ हैं। व्याख्या- ‘याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य निष्ठसि’- भगवान ने पहले (सातवें श्लोक में) यह बात कही थी कि जो मनुष्य मेरी विभूतियों को और योग को तत्त्व से जानता है, उसका मेरे में अटल भक्तियोग हो जाता है। उसे सुनने पर अर्जुन के मन में आया कि भगवान में दृढ़ भक्ति होने का यह बहुत सुगम और श्रेष्ठ उपाय है; क्योंकि भगवान की विभूतियों को और योग को तत्त्व से जानने पर मनुष्य मन भगवान की तरफ स्वाभाविक ही खिंच जाता है और भगवान में उसकी स्वाभाविक ही भक्ति जाग्रत हो जाती है। अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं और कल्याण के लिए उनको भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ उपाय दिखती है। इसलिए अर्जुन कहते हैं कि जिन विभूतियों से आप संपूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं, उन अलौकिक, विलक्षण विभूतियों का विस्तारपूर्वक संपूर्णता से वर्णन कीजिए। कारण कि उनको कहने में आप ही समर्थ हैं; आपके सिवाय उन विभूतियों को और कोई नहीं कह सकता। ‘वक्तुमर्हस्यशेषेण’- आपने पहले[1] अपनी विभूतियाँ बतायीं और उनको जानने का फल दृढ़ भक्तियोग होना बताया। अतः मैं भी आपकी सब विभूतियों को जान जाऊँ और मेरा भी आपमें दृढ़ भक्तियोग हो जाए, इसलिए आप अपनी विभूतियों को पूरी-की-पूरी कह दें, बाकी कुछ न रखें। ‘दिव्या ह्यात्मविभूतयः’- विभूतियों को दिव्य कहने का तात्पर्य है कि संसार में जो कुछ विशेषता दिखती है वह मूल में दिव्य परमात्मा की ही है, संसार की नहीं। अतः संसार की विशेषता देखना भोग है और परमात्मा की विशेषता देखना विभूति है, योग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सातवें, नवें और यहाँ दसवें अध्याय के आरंभ में
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