श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
‘कथयन्तश्च माम्’- उनको भगवान की कथा-लीला सुनने वाला कोई भगवद्भक्त मिल जाता है, तो वे भगवान की कथा-लीला कहना शुरू कर देते हैं। जैसे सनकादि चारों भगवान की कथा कहते हैं और सुनते हैं। उनमें कोई एक वक्ता बन जाता है और तीन श्रोता बन जाते हैं। ऐसे ही भगवान के प्रेमी भक्तों को कोई सुनने वाला मिल जाता है तो वे उसको भगवान की कथा, गुण, प्रभाव, रहस्य आदि सुनाते हैं; और कोई सुनाने वाला मिल जाता है तो स्वयं सुनने लग जाते हैं। परंतु उनमें सुनाते समय ‘वक्ता’ बनने का अभिमान नहीं होता और सुनते समय ‘श्रोता’ बनने की लज्जा नहीं होती। ‘नित्यं तुष्यन्ति च’- इस तरह भगवान की कथा, लीला, गुण, प्रभाव, रहस्य आदि को आपस में एक-दूसरे को जनाते हुए और उनका ही कथन तथा चिन्तन करते हैं वे भक्त नित्य-निरंतर संतुष्ट रहते हैं। तात्पर्य है कि उनकी संतुष्टि का कारण भगवान के सिवाय दूसरा कोई नहीं रहता, केवल भगवान ही रहते हैं। ‘रमन्ति च’- वे भगवान में ही रमण अर्थात प्रेम करते हैं। इस प्रेम में उनमें और भगवान में भेद नहीं रहता- ‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्’।[2] कभी भक्त भगवान का भक्त हो जाता है, तो कभी भगवान अपने भक्त के भक्त बन जाते हैं।[3] इस तरह भगवान और भक्त में परस्पर प्रेम की लीला अनन्तकाल तक चलती ही रहती है, और प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है। इस वर्णन से साधक को इस बात की तरफ ध्यान देना चाहिए कि उसके हरेक क्रिया, भाव आदि का प्रवाह केवल भगवान की तरफ ही हो। संबंध- पूर्वश्लोक में भक्तों के द्वारा होने वाले भजन का प्रकार बताकर अब आगे के दो श्लोक में भगवान उन पर विशेष कृपा करने की बात बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सतामयं सारभृतां निसर्गो यदर्थवाणीश्रुतिचेतसामपि। प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत् स्त्रिया विटानामिव साधुवार्ता।। (श्रीमद्भा. 10।13।2) ‘सार-तत्त्व को धारण करने वाले पुरुषों का यह स्वभाव होता है कि जिनकी वाणी, कान और अंतःकरण भगवान की लीलाओं को गाने, सुनने और चिन्तन करने के लिए ही होते हैं। जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चा में नयापन मालूम देता है, ऐसे ही भक्तों को भगवान की लीलाओं में, कथाओं में, नित्य नयापन मालूम देता है।’
- ↑ नारदभक्ति सूत्र 41
- ↑ ‘एवं स्वभक्तयो राजन भगवान भक्तभक्तिमान्।’ (श्रीमद्भा. 10।86।59)
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