श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
‘मद्गप्राणाः’- उनके प्राण मेरे ही अर्पण हो गए हैं। प्राणों में दो बातें हैं- जीना और चेष्टा। उन भक्तों का जीना भी भगवान के लिए है और शरीर की संपूर्ण चेष्टाएँ (क्रियाएँ) भी भगवान के लिए ही हैं। शरीर की जितनी क्रियाएँ होती हैं, उनमें प्राणों की ही मुख्यता होती है। अतः उन भक्तों की यज्ञ, अनुष्ठान आदि शास्त्रीय; भजन-ध्यान, कथा-कीर्तन आदि भगवत्संबंधी; खाना-पीना आदि शारीरिक; खेती, व्यापार आदि जीविका-संबंधी; सेवा आदि सामाजिक आदि-आदि जितनी क्रियाएँ होती हैं, वे सब भगवान के लिए ही होती है। उनकी क्रियाओं में क्रियाभेद तो होता है, पर उद्देश्य भेद नहीं होता। उनकी मात्र क्रियाएँ एक भगवान के उद्देश्य से ही होती हैं। इसलिए वे ‘भगवद्गतप्राण’ होते हैं। जैसे गोपिकाओं ने ‘गोपीगीत’ में भगवान से कहा है कि हमने अपने प्राणों को आप में अर्पण कर दिया है- ‘त्वयि धृतासवः’[3], ऐसे ही भक्तों के प्राण केवल भगवान में रहते हैं। उनका जितना भगवान से अपनापन है, उतना अपने प्राणों से नहीं। हरेक प्राणी में ‘किसी भी अवस्था में मेरे प्राण न छूटे’ इस तरह जीने की इच्छा रहती है। यह प्राणों का मोह है, स्नेह है। परंतु भगवान के भक्तों का प्राणों में मोह नहीं रहता। उनमें ‘हम जीते रहे’ यह इच्छा नहीं होती और मरने का भय भी नहीं होता। उनको न जीने से मतलब रहता है और न मरने से। उनको तो केवल भगवान से मतलब रहता है। कारण कि वे इस बात को अच्छी तरह से जान जाते हैं कि मरने से तो प्राणों का ही वियोग होता है, भगवान से तो कभी वियोग होता ही नहीं। प्राणों के साथ हमारा संबंध नहीं है, पर भगवान के साथ हमारा स्वतः सिद्ध घनिष्ठ संबंध है। प्राण प्रकृति के कार्य हैं और हम स्वयं भगवान के अंश हैं। ऐसे ‘मद्तप्राणाः’ होने के लिए साधक को सबसे पहले यह उद्देश्य बनाना चाहिए कि हमें तो भगवत्वप्राप्ति ही करनी है। सांसारिक चीजें प्राप्त हों या न हों, हम स्वस्थ रहें या बीमार, हमारा आदर हो या निरादर, हमें सुख मिले या दुःख- इनसे हमारा कोई मतलब नहीं है। हमारा मतलब तो केवल भगवान से है। ऐसा दृढ़ उद्देश्य बनने पर साधक ‘भगवद्गत प्राण’ हो जाएगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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