श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
मच्चित्ता मद्ग्तप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । अर्थ- मेरे में चित्त वाले, मेरे में प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन आपस में मेरे गुण, प्रभाव आदि को जनाते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मेरे में प्रेम करते हैं। व्याख्या- [ भगवान से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान से ही सबकी चेष्टा हो रही है अर्थात सबके मूल में परमात्मा है- यह बात जिनको दृढ़ता से और निःसंदेह पूर्वक जँच गयी है, उनके लिए कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। बस, उनका एक ही काम रहता- सब प्रकार से भगवान में ही लगे रहना। यही बात इस श्लोक में बतायी गयी है।] ‘मच्चिताः’- वे मेरे में चित्त वाले हैं। एक स्वयं का भगवान में लगना होता है और एक चित्त को भगवान में लगाना होता है। जहाँ ‘मैं भगवान का हूँ’ ऐसे स्वयं भगवान में लग जाता है, वहाँ चित्त, बुद्धि आदि सब स्वतः भगवान में लग जाते हैं। कारण कि कर्ता (स्वयं) के लगने पर करण (मन, बुद्धि आदि) अलग थोड़े ही रहेंगे! वे भी लग जाएंगे। करणों के लगने पर तो कर्ता अलग रह सकता है, पर कर्ता के लगने पर करण अलग नहीं रह सकते। जहाँ कर्ता रहेगा, वहीं करण भी रहेंगे। कारण कि करण कर्ता के ही अधीन होते हैं। कर्ता स्वयं जहाँ लगता है, करण भी वहीं लगते हैं। जैसे, कोई मनुष्य परमात्मप्राप्ति के लिए सच्चे हृदय से साधक बन जाता है, तो साधन में उसका मन स्वतः लगता है। उसका मन साधन के सिवाय अन्य किसी कार्य में नहीं लगता और जिस कार्य में लगता है, वह कार्य भगवान का ही होता है। कारण कि स्वयं कर्ता के विपरीत मन-बुद्धि आदि नही चलते। परंतु जहाँ स्वयं भगवान में नहीं लगता, प्रत्युत ‘मैं तो संसारी हूँ’, ‘मैं तो गृहस्थ हूँ’- इस प्रकार स्वयं को संसार में लगाकर चित्त को भगवान में लगाना चाहता है, उसका चित्त भगवान में निरंतर नहीं लगता। तात्पर्य है कि स्वयं तो संसारी बना रहे और चित्त को भगवान में लगाना चाहे, तो भगवान में चित्त लगना असंभव सा है। दूसरी बात, चित्त वहीं लगता है, जहाँ प्रियता होती है। प्रियता वहीं होती है, जहाँ अपनापन होता है, आत्मीयता होती है। अपनापन होता है- भगवान के साथ स्वयं का संबंध जोड़ने से। ‘मैं केवल भगवान का हूँ और केवल भगवान ही मेरे हैं, शरीर-संसार मेरा नहीं है। मेरे पर प्रभु का पूरा अधिकार है, इसलिए वे मेरे प्रति चाहे जैसा बर्ताव या विधान कर सकते हैं। परंतु मेरा प्रभु पर कोई अधिकार नहीं है अर्थात वे मेरे हैं तो मैं जैसा चाहूँ, वे वैसा ही करें- ऐसा कोई अधिकार नहीं है’- इस प्रकार जो स्वयं को भगवान का मान लेता है, अपने-आपको भगवान के अर्पित कर देता है, उसका चित्त स्वतः भगवान में लग जाता है। ऐसे भक्तों को ही यहाँ ‘मच्चिताः’ कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस श्लोक में छः बाते हैं- इनमें से ‘मच्चिचाः’ और ‘मद्गतप्राणाः’ ये दो बातें स्वयं करने की है अर्थात भक्त स्वयं स्वतंत्रतापूर्वक ऐसे बन जाते हैं, ‘बोधयन्तः’ और ‘कथयन्तः’- ये दो बातें आपस में मिलने पर होती है तथा ‘तुष्यन्ति और रमन्ति’- ये दो बातें फलरूप में होती है।
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