श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
‘यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया’- सुनने वाला वक्ता में श्रद्धा और प्रेम रखने वाला हो और वक्ता के भीतर सुनने वाले के प्रति कृपापूर्वक हित-भावना हो तो वक्ता के वचन, उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोता के भीतर अटल रूप से जम जाता है। इससे श्रोता की भगवान में स्वतः रुचि पैदा हो जाती है, भक्ति हो जाती है, प्रेम को हो जाता है। यहाँ ‘हितकाम्यया’ पद से एक शंका हो सकती है कि भगवान ने गीता में जगह-जगह कामना का निषेध किया है, फिर वे स्वयं अपने में कामना क्यों रखते हैं? इसका समाधान यह है कि वास्तव में अपने लिए भोग, सुख, आराम आदि चाहना ही ‘कामना’ है। दूसरों के हित की कामना ‘कामना’ है ही नहीं। दूसरों के हित की कामना तो त्याग है और अपनी कामना को मिटाने का मुख्य साधन है। इसलिए भगवान सबको धारण करने के लिए आदर्श रूप से कह रहे हैं कि जैसे मैं हित की कामना से कहता हूँ, ऐसे ही मनुष्यमात्र को चाहिए कि वह प्राणिमात्र के हित की कामना से ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जाएगी और कामना मिटने पर मेरी प्राप्ति सुगमता से हो जाएगी। प्राणिमात्र के हित की कामना रखने वाले को मेरे सगुम स्वरूप की प्राप्ति भी हो जाती है- ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’[1], और निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति भी हो जाती है- ‘लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं ...... सर्वभूतहिते रताः’।[2] संबंध- परम वचन के विषय में, जिसे मैं आगे कहूँगा, मेरे सिवाय पूरा-पूरा बताने वाला अन्य कोई नहीं मिल सकता। इसका कारण क्या है? इसे भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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