पंचदश अध्याय
प्रश्न- सुख-दुःखसंज्ञक द्वन्द्व क्या हैं? और उनसे विमुक्त होना क्या है?
उत्तर- शीत-उष्ण, प्रिय-अप्रिय, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा इत्यादि द्वन्द्वों को सुख और दुःख में हेतु होने से सुख-दुःख संज्ञक कहा गया है। इन सबसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न रखना अर्थात् किसी भी द्वन्द्व के संयोग-वियोग में जरा भी राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकार का न होना ही उन द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त होना है। इसलिये ऐसे पुरुषों को सुख-दुःखनामक द्वन्द्वों से विमुक्त कहते हैं।
प्रश्न- ‘अमूढाः’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- ‘अमूढाः’ पद जिनमें मूढ़ता या अज्ञान का सर्वथा अभाव हो, उस ज्ञानी महात्माओं का वाचक है। उपर्युक्त समस्त विशेषणों का यही विशेष्य है। इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह दिखलाया है कि ‘निर्मानमोहाः’ आदि समस्त गुणों से युक्त जो ज्ञानीजन हैं, वे ही परमपद को प्राप्त होते हैं।
प्रश्न- वह अविनाशी परमपद क्या है और उसको प्राप्त होना क्या है?
उत्तर- चौथे श्लोक में जिस पद का अनुसन्धान करने के लिये और जिस आदि-पुरुष के शरण होने के लिये कहा गया है- उसी सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वर का वाचक अविनाशी परमपद है। तथा उस परमेश्वर की माया से विस्तार को प्राप्त हुए इस संसारवृक्ष से सर्वथा अतीत होकर उस परमपदस्वरूप परमेश्वर को पा लेना ही अव्यय पद को प्राप्त होना है।
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