चतुर्दश अध्याय
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या: ।
तासां ब्रह्मा महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता ।। 4 ।।
हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उस सबकी गर्भ धारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ।। 4 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘मूर्तयः’ पद किनका वाचक है और समस्त योनियों में उनका उत्पन्न होना क्या है?
उत्तर- ‘मूर्तयः’ पद देव, मनुष्य, राक्षस, पशु और पक्षी आदि नाना प्रकार के भिन्न-भिन्न वर्ण और आकृति वाले शरीरों से युक्त समस्त प्राणियों का वाचक है; और उन देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में उन प्राणियों का स्थूल रूप से जन्म ग्रहण करना ही उनका उत्पन्न होना है।
प्रश्न- उन सब मूर्तियों का मैं बीज प्रदान करने वाला पिता हूँ और महद्ब्रह्म योनि माता है- इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि उन सब मूर्तियों के जो सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, वे सब प्रकृति के अंश से बने हुए हैं और उन सबमें जो चेतन आत्मा है, वह मेरा अंश है। उन दोनों के सम्बन्ध से समस्त मूर्तियाँ अर्थात् शरीरधारी प्राणी प्रकट होते हैं, अतएव प्रकृति उनकी माता है और मैं पिता हूँ।
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