चतुर्दश अध्याय
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता: ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।। 2 ।।
इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए सृष्टि के आदि में पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलय काल में भी व्याकुल नहीं होते।। 2 ।।
प्रश्न- ‘ज्ञानम्’ के साथ ‘इदम्’ विशेषण के प्रयोग का क्या भाव है? और उस ज्ञान का आश्रय लेना क्या है?
उत्तर- जिसका वर्णन तेरहवें अध्याय में किया जा चुका है और इस चौदहवें अध्याय में भी किया जाता है, उसी ज्ञान की यह महिमा है- इसी बात को स्पष्ट करने के लिये ‘ज्ञानम्’ पद के साथ ‘इदम्’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। तथा इस प्रकरण में वर्णित ज्ञान के अनुसार प्रकृति और पुरुष के स्वरूप को समझकर गुणों के सहित प्रकृति से सर्वथा अतीत हो जाना और निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्द परमात्मा के स्वरूप में अभिन्नभाव से स्थित रहना ही इस ज्ञान का आश्रय लेना है।
प्रश्न- यहाँ भगवान् के साधर्म्य को प्राप्त होना क्या है?
उत्तर- पिछले श्लोक में ‘परां सिद्धिं गताः’ से जो बात कही गयी है, इस श्लोक में ‘मम साधर्म्यमागताः’ से भी वही कही गयी है। अभिप्राय यह है कि भगवान् के निर्गुणरूप को अभेदभाव से प्राप्त हो जाना ही भगवान् के साधर्म्य को प्राप्त होना है।
प्रश्न- भगवत्प्राप्त पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते- इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि इन अध्यायों में बतलाये हुए ज्ञान का आश्रय लेकर तदनुसार साधन करके जो पुरुष परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को अभेदभाव से प्राप्त हो चुके हैं, वे मुक्त पुरुष न तो महासर्ग के आदि में पुनः उत्पन्न होते हैं और न प्रलयकाल में पीड़ित ही होते हैं। वस्तुतः सृष्टि के सर्ग और प्रलय से उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं रह जाता। क्योंकि अच्छी-बुरी योनियों में जन्म होने का प्रधान कारण हो गुणों का संग और मुक्त पुरुष गुणों से सर्वथा अतीत होते हैं; इसलिये उनका पुनरागमन नहीं हो सकता। और जब उत्पत्ति नहीं है, तब विनाश का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
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