चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- ‘प्राणायामपरायणाः’ विशेषण का क्या अर्थ है?
उत्तर- जो प्राणों के नियमन करने में अर्थात् बार-बार प्राणों को रोकने का अभ्यास करने में तत्पर हों और इसी को परमात्मा की प्राप्ति का प्रधान साधन मानते हों, ऐसे पुरुषों को ‘प्राणायामपरायणाः’ कहते हैं।
प्रश्न- यहाँ ‘नियताहाराः’ और ‘प्राणायामपरायणाः’ इन दोनों विशेषणों का सम्बन्ध तीनों प्रकार के प्राणायाम करने वालों से न मानकर केवल प्राणों का हवन करने वालों के साथ मानने का क्या अभिप्राय है? क्या दूसरे दोनों साधक नियताहारी और प्राणायामपरायण नहीं होते?
उत्तर- उपर्युक्त प्राणायामरूप यज्ञ करने वाले सभी योगी नियताहारी और प्राणायाम-परायण कहे जा सकते हैं। अतएव इन दोनों विशेषणों का सम्बन्ध सब के साथ मानने में भावतः कोई आपत्ति की बात नहीं है, परंतु उपर्युक्त श्लोकों में दोनों ही विशेषण तीसरे साधक के ही समीप पड़ते हैं। इस कारण व्याख्या में इन विशेषणों का सम्बन्ध ‘केवल कुम्भक’ करने-वालों से ही माना गया है। किंतु भावतः प्राण में अपान का हवन करने वाले और अपान में प्राण का हवन करने वाले साधकों के साथ भी इन विशेषणों का सम्बन्ध समझ सकते हैं।
प्रश्न- तीसवें श्लोक में ‘प्राण’ शब्द में बहुवचन का प्रयोग क्यों किया गया है? तथा प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में हवन करना क्या है?
उत्तर- शरीर के भीतर रहने वाली वायु के पाँच भेद माने जाते हैं- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। इनमें प्राण का स्थान हृदय, अपान का गुदा, समान का नाभि, उदान का कण्ठ और व्यान का समस्त शरीर माना गया है। इन पाँचों वायुभेदों को 'पंचप्राण' भी कहते है। अतएव यहाँ पाँचों वायुभेदों को जीतकर इन सबका निरोध करने के साधन को यज्ञ का रूप देने के लिये प्राण शब्द में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। इस साधन में अग्नि और हवन करने योग्य द्रव्य दोनों के स्थान में प्राणों को ही रखा गया है। इसलिये समझना चाहिये कि जिस प्राणायाम में प्राण और अपान- इन दोनों की गति रोक दी जाती है अर्थात् न तो पूरक प्राणयाम किया जाता है और न रेचक, किंतु श्वास और प्रश्वासों को बंद करके प्राण-अपान आदि समस्त वायुभेदों को अपने-अपने स्थानों में ही रोक दिया जाता है- वही यहाँ प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों का प्राणों में हवन करना है। इस साधन में न तो बाहर की वायु को भीतर ले जाकर रोका जाता है और भीतर की वायु को बाहर लाकर; अपने- अपने स्थानों में स्थित पंचवायु भेदों को वहीं रोक दिया जाता है। इसलिये इसे ‘केवल कुम्भक’ कहते हैं।
|