श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।’[1] चित्त को किसी एक देश-विशेष में स्थिर करने का नाम धारणा है। अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म या बाह्य-आभ्यन्तर-किसी एक ध्येय स्थान में चित्त को बाँध देना, स्थिर कर देना या लगा देना धारण कहलाता है। यहाँ विषय परमेश्वर का है; इसलिये धारणा, ध्यान और समाधि परमेश्वर में ही करने चाहिये। ‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्’[2] उस पूर्वोक्त ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता का नाम ध्यान है। अर्थात् चित्तवृत्ति का गंगा के प्रवाह की भाँति या तैलधारावत् अविच्छिन्नरूप से ध्येय वस्तु में ही लगा रहना ध्यान कहलाता है। ‘तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।’[3] जिस समय केवल ध्येय स्वरूप का ही भान होता है और अपने स्वरूप के भान का अभाव-सा रहता है, उस समय वह ध्यान ही समाधि हो जाता है। ध्यान करते-करते जब योगी का चित्त ध्येयाकार को प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येय में तन्मय-सा बन जाता है, ध्येय से भिन्न अपने-आप का भी ज्ञान उसे नहीं-सा रह जाता है- उस स्थिति का नाम समाधि है। ध्यान में ध्याता, ध्यान, ध्येय यह त्रिपुटी रहती है। समाधि में केवल अर्थमात्र वस्तु–ध्येय वस्तु ही रहती है अर्थात् ध्यात, ध्यान, ध्येय तीनों की एकता हो जाती है। प्रश्न- सत्ताईसवें श्लोक में बतलाये हुए आत्म-संयम योगरूप यज्ञ में और इसमें क्या अन्तर है? उत्तर- वहाँ धारणा-ध्यान समाधिरूप अन्तरंग साधन की प्रधानता है; यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार की नहीं। ये सब अपने-आप ही उनमें आ जाते हैं और यहाँ सभी साधनों को क्रम से करने के लिये कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज