श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
‘शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।’[1] सब प्रकार से बाहर और भीतर की पवित्रता (शौच); प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहना (सन्तोष); एकादशी आदि व्रत-उपवास करना (तप); कल्याणप्रद शास्त्रों का अध्ययन तथा ईश्वर के नाम और गुणों का कीर्तन (स्वाध्याय); सर्वस्व ईश्वर के अर्पण करके उनकी आज्ञा का पालन करना (ईश्वर प्रणिधान) इन पाँचों का नाम नियम है। ‘स्थिरसुखमासनम्’[2] सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन[3] है। ‘तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।[4] आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के रोकने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतर की वायु का बाहर निकलना प्रश्वास है; इन दोनों के रोकने का नाम प्राणायाम है।
भीतर के श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोक रखना ‘बाह्य कुम्भक’ कहलाता है। इसकी विधि यह है- आठ प्रणव (ऊँ) से रेचक करके सोलह से बाह्य कुम्भक करना और फिर चार से पूरक करना- इस प्रकार से रेचक-पूरक के सहित बाहर कुम्भक करने का नाम बाह्यवृत्ति प्राणायाम है। बाहर के श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने को ‘आभ्यन्तर कुम्भक’ कहते हैं। इसकी विधि यह है कि चार प्रणव से पूरक करके सोलह से आभ्यन्तर कुम्भक करे, फिर आठ से रेचक करे। इस प्रकार पूरक-रेचक के सहित भीतर कुम्भक करने का नाम आभ्यन्तरवृत्ति प्राणायाम है। बाहर या भीतर, जहाँ कहीं भी सुखपूर्वक प्राणों के रोकने का नाम स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। चार प्रणव से पूरक करके आठ से रेचक करे; इस प्रकार पूरक-रेचक करते-करते सुखपूर्वक जहाँ कहीं प्राणों को रोकने का नाम स्तम्भवृत्ति प्राणायाम है। इनके और भी बहुत से भेद हैं; जितनी संख्या और जितना काल पूरक में लगाया जाय, उतनी ही संख्या और उतना ही काल रेचक और कुम्भक में भी लगा सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ योग. 2/32
- ↑ योग. 2/46
- ↑ आसन अनेकों प्रकार के हैं। उनमें से आत्मसंयम चाहने वाले पुरुष के लिये सिद्धासन, पद्मासन और स्वस्तिकासन- ये तीन बहुत उपयोगी माने गये हैं। इनमें से कोई-सा भी आसन हो; परंतु मेरुदण्ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्य रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी के मध्य भाग में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आँखें मूँदकर भी बैठ सकते हैं। जो पुरुष जिस आसन से सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, उसके लिये वही आसन उत्तम है।
- ↑ योग. 2/49
- ↑ योग. 2/50
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