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चतुर्थ अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार समाधि योग के साधन को यज्ञ का रूप देकर अब अगले श्लोक में द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ का संक्षेप में वर्णन करते हैं-
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता: ।।28।।
कई पुरुष द्रव्य सम्बंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं और कितने ही अहिंसदि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं ।।28।।
प्रश्न- द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ किस क्रिया का वाचक है? इसे करने का अधिकार किन को है तथा यहाँ ‘द्रव्ययज्ञाः’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- अपने-अपने वर्णधर्म के अनुसार न्याय से प्राप्त द्रव्य को ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके यथायोग्य लोकसेवा में लगाना अर्थात् उपर्युक्त भाव से बावली, कुएँ, तालाब, मन्दिर, धर्मशाला आदि बनवाना; भूखे, अनाथ, रोगी, दुःखी, असमर्थ, भिक्षु आदि मनुष्यों की यथावश्यक अन्न, वस्त्र, जल, औषध, पुस्तक आदि वस्तुओं द्वारा सेवा करना; विद्वान् तपस्वी वेदपाठी सदाचारी ब्राह्मणों को गौ, भूमि, वस्त्र, आभूषण आदि पदार्थों का यथायोग्य अपनी शक्ति के अनुसार दान करना- इसी तरह अन्य सब प्राणियों को सुख पहुँचाने के उद्देश्य से यथा शक्ति द्रव्य का व्यय करना ‘द्रव्ययज्ञ’ है। इस यज्ञ के करने का अधिकार केवल गृहस्थों को ही है; क्योंकि द्रव्य का संग्रह करके परोपकार में उसके व्यय करने का अधिकार संन्यास आदि अन्य आश्रमों में नहीं है। यहाँ भगवान् ने ‘द्रव्ययज्ञ’ शब्द का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से लोकसेवा में द्रव्य लगाने के लिये निःस्वार्थ भाव से कर्म करना भी यज्ञार्थ कर्म करने के अन्तर्गत है।
प्रश्न- ‘तपोयज्ञ’ किस कर्म को कहते हैं? और इसमें किसका अधिकार है?
उत्तर- परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से अन्तःकरण और इन्द्रियों को पवित्र करने के लिये ममता, आसक्ति और फलेच्छा के त्यागपूर्वक व्रत-उपवासादि करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहन करना, मौन धारण करना, एक वस्त्र या दो वस्त्रों से अधिक का त्याग कर देना, अन्न का त्याग कर देना, केवल फल या दूध खाकर ही शरीर का निर्वाह करना; वनवास करना आदि जो शास्त्र-विधि के अनुसार तितिक्षा-सम्बन्धी क्रियाएँ हैं- उन सब का वाचक यहाँ ‘तपोयज्ञ’ है। इसमें वानप्रस्थ आश्रम वालों का तो पूर्ण अधिकार है ही, दूसरे आश्रम वाले मनुष्य भी शास्त्र विधि के अनुसार इसका पालन कर सकते हैं। अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सभी आश्रम वाले इसके अधिकारी हैं।
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