श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
दैवमेवापरे यज्ञं योगिन: पर्युपासते ।
उत्तर- यहाँ ‘योगिनः’ पद ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके शास्त्र-विहित यज्ञादि कर्म करने वाले साधकों का वाचक है तथा इन साधकों को पूर्व श्लोक में वर्णित ब्रह्मकर्म करने वालों से अलग करने के लिये यानी इनका साधन पूर्वोक्त साधन से भिन्न है और दोनों साधनों के अधिकारी भिन्न-भिन्न होते हैं, इस बात को स्पष्ट करने के लिये यहाँ ‘योगिनः’ पद के साथ ‘अपरे’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘दैवम्’ विशेषण के सहित ‘यज्ञम्’ पद किस कर्म का वाचक है और उसका भली-भाँति अनुष्ठान करना क्या है तथा इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में भगवान् के कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ब्रह्मा, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र और वरुणादि जो शास्त्रसम्मत देव हैं- उनके लिये हवन करना’ उनकी पूजा करना उनके मन्त्र का जप करना, उनके निमित्त से दान देना और ब्राह्मण-भोजन करवाना आदि समस्त कर्मों का वाचक यहाँ ‘दैवम्’ विशेषण के सहित ‘यज्ञम्’ पद है और अपना कर्तव्य समझकर बिना ममता, आसक्ति और फलेच्छा के केवल परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से इन सबका श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शास्त्रविधि के अनुसार पूर्णतया अनुष्ठान करना ही दैवयज्ञ का भली-भाँति अनुष्ठान करना है। इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो इस प्रकार से देवोपासना करते हैं, उनकी क्रिया भी यज्ञ के लिये ही कर्म करने के अन्तर्गत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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