श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
उत्तर- लोकप्रसिद्धि में मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर के व्यापार मात्र का नाम कर्म है, उनमें से जो शास्त्र विहित कर्तव्य-कर्म हैं उनको कर्म कहते हैं और शास्त्रनिषिद्ध पापकर्मों को विकर्म कहते हैं। शास्त्रनिषिद्ध पापकर्म सर्वथा त्याज्य हैं, इसलिये उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी। अतः यहाँ जो शास्त्र विहित कर्तव्य-कर्म हैं, उनमें अकर्म देखना क्या है- इसी बात पर विचार करना है। यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका और शरीर निर्वाह-सम्बन्धी जितने भी शास्त्र विहित कर्म हैं- उन सब में आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकार का त्याग कर देने से वे इस लोक या परलोक में सुख-दुःखादि फल भुगताने के और पुनर्जन्म के हेतु नहीं बनते बल्कि मनुष्य के पूर्वकृत समस्त शुभा शुभ कर्मों का नाश करके उसे संसार-बन्धन से मुक्त करने वाले होते हैं- इस रहस्य को समझ लेना ही कर्म में अकर्म देखना है। इस प्रकार कर्म में अकर्म देखने वाला मनुष्य आसक्ति, फलेच्छा और ममता के त्यागपूर्वक ही विहित कर्मों का यथा योग्य आचरण करता है। अतः वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता, इसलिये वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है; वह परमात्मा को प्राप्त है, इसलिये योगी है और उसे कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता- वह कृतकृत्य हो गया है, इसलिये वह समस्त कर्मों को करने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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