श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि साधारणतः झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि पाप-कर्मों का नाम ही विकर्म है- यह प्रसिद्ध है; पर इतना जान लेने मात्र से विकर्म का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना जा सकता, क्योंकि शास्त्र के तत्त्व को न जानने वाले अज्ञानी पुण्य को भी पाप मान लेते हैं और पाप को भी पुण्य मान लेते हैं। वर्ण, आश्रम और अधिकार के भेद से जो कर्म एक के लिये विहित होने से कर्तव्य (कर्म) है, वही दूसरे के लिये निषिद्ध होने से पाप (विकर्म) हो जाता है- जैसे सब वर्णों की सेवा करके जीविका चलाना शूद्र के लिये विहित कर्म है, किंतु वही ब्राह्मण के लिये निषिद्ध कर्म है; जैसे दान लेकर, वेद पढ़ाकर और यज्ञ कराकर जीविका चलाना ब्राह्मण के लिये कर्तव्य-कर्म है, किंतु दूसरे वर्णों के लिये पाप है; जैसे गृहस्थ के लिये न्यायोपार्जित द्रव्य संग्रह करना और ऋतुकाल में स्वपत्नीगमन करना धर्म है, किंतु संन्यासी के लिये कांचन और कामिनी का दर्शन-स्पर्श करना भी पाप है। अतः झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि जो सर्वसाधारण के लिये निषिद्ध हैं तथा अधिकार-भेद से जो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिये निषिद्ध हैं- उन सबका त्याग करने के लिये विकर्म के स्वरूप को भली-भाँति समझना चाहिये। इसका स्वरूप भी तत्त्ववेता महापुरुष ही ठीक-ठीक बतला सकते हैं। प्रश्न- कर्म की गति गहन है, इस कथन का तथा ‘हि’ अव्यय के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- ‘हि’ अव्यय यहाँ हेतुवाचक है। इसका प्रयोग करके उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि कर्म का तत्त्व बड़ा ही गहन है। कर्म क्या है? अकर्म क्या है? विकर्म क्या है?- इसका निर्णय हरेक मनुष्य नहीं कर सकता; जो विद्या-बुद्धि की दृष्टि से पण्डित और बुद्धिमान् हैं, वे भी कभी-कभी इसके निर्णय करने में असमर्थ हो जाते हैं। अतः कर्म के तत्त्व को भली-भाँति जानने वाले महापुरुषों से इसका तत्त्व समझना आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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