श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: ।
प्रश्न- गुणकर्म क्या है और उसके विभाग-पूर्वक भगवान द्वारा चारों वर्णों के समूह की रचना की गयी है, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- अनादिकाल से जीवों के जो जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए कर्म हैं, जिनका फलभोग नहीं हो गया है, उन्हीं के अनुसार उनमें यथायोग्य सत्त्व, रज और तमोगुण की न्यूनाधिकता होती है। भगवान् जब सृष्टि-रचना के समय मनुष्यों का निर्माण करते हैं, तब उन-उन गुण और कर्मों के अनुसार उन्हें ब्राह्मणादि वर्णों में उत्पन्न करते हैं। अर्थात् जिनमें सत्त्वगुण अधिक होता है उन्हें ब्राह्मण बनाते हैं, जिनमें सत्त्वमिश्रित रजोगुण की अधिकता होती है उन्हें क्षत्रिय, जिनमें तमोमिश्रित रजोगुण अधिक होता है उन्हें वैश्य और जो रजोमिश्रित तमःप्रधान होते हैं, उन्हें शूद्र बनाते हैं। इस प्रकार रचे हुए वर्णों के लिये उनके स्वभाव के अनुसार पृथक्-पृथक् कर्मों का विधान भी भगवान् ही कर देते हैं- अर्थात् ब्राह्मण शम-दमादि कर्मों में रत रहें, क्षत्रिय में शौर्य-तेज आदि हों, वैश्य कृषि-गोरक्षा में लगें और शूद्र सेवापरायण हों ऐसा कहा गया है।[1] इस प्रकार गुणकर्म-विभागपूर्वक भगवान् के द्वारा चतुर्वर्ण की रचना होती है। यही व्यवस्था जगत् में बराबर चलती है। जब तक वर्णशुद्धि बनी रहती है, एक ही वर्ण के स्त्री-पुरुषों के संयोग से सन्तान उत्पन्न होती है, विभिन्न वर्णों के स्त्री-पुरुषों के संयोग से वर्ण में संकरता नहीं आती, तब तक इस व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं होती। गड़बड़ी होने पर भी वर्णव्यवस्था न्यूनाधिकरूप में रहती ही है। यहाँ कर्म और उपासना का प्रकरण है। उसमें केवल मनुष्यों का ही अधिकार है, इसीलिये यहाँ मनुष्यों का उपलक्षण बनाकर कहा गया है। अतएव यह भी समझ लेना चाहिये कि देव, पितर और तिर्यक् आदि दूसरी-दूसरी योनियों की रचना भी भगवान् जीवों के गुण और कर्मों के अनुसार ही करते हैं। इसलिये इन सृष्टि-रचनादि कर्मों में भगवान् की किंचिन्मात्र भी विषमता नहीं है, यही भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गयी है कि मेरे द्वारा चारों वर्णों की रचना उनके गुण और कर्मों के विभागपूर्वक की गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18/41-44
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