श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
कांक्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: ।
उत्तर- यज्ञादि कर्मों द्वारा इन्द्रादि देवताओं की उपासना करने का अधिकार मनुष्य-योनि में ही है, अन्य योनियों में नहीं- यह भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘इह’ और ‘मानुषे’ के सहित ‘लोके’ पद का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- कर्मों का फल चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं, क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है- इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिनकी सांसारिक भोगों में आसक्ति; जो अपने किये हुए कर्मों का फल स्त्री, पुत्र, धन, मकान या मान-बड़ाई के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं- उनका विवेक-ज्ञान नाना प्रकार की भोग-वासनाओं से ढका रहने के कारण वे मेरी उपासना न करके, कामना-पूर्ति के लिये इन्द्रादि देवताओं की ही उपासना किया करते हैं[1]; क्योंकि उन देवताओं का पूजन करने वालों को उनके कर्मों का फल तुरंत मिल जाता है। देवताओं का यह स्वभाव है कि वे प्रायः इस बात को नहीं सोचते कि उपासक को अमुक वस्तु देने में उसका वास्तविक हित है या नहीं; वे देखते हैं कर्मानुष्ठान की विधिवत् पूर्णता। सांगोपांग अनुष्ठान सिद्ध होने पर वे उसका फल, जो उनके अधिकार में होता है और जो उस कर्मानुष्ठान के फलरूप में विहित है, दे ही देते हैं। किंतु मैं ऐसा नहीं करता, मैं अपने भक्तों का वास्तविक हित-अहित सोचकर उनकी भक्ति के फल की व्यवस्था करता हूँ। मेरे भक्त यदि सकामभाव से भी मेरा भजन करते हैं तो भी मैं उनकी उसी कामना को पूर्ण करता हूँ जिसकी पूर्ति से उनका विषयों से वैराग्य होकर मुझ में प्रेम और विश्वास बढ़ता है। अतएव सांसारिक मनुष्यों को मेरी भक्ति का फल शीघ्र मिलता हुआ नहीं दिखता और इसीलिये वे मन्दबुद्धि मनुष्य कर्मों का फल शीघ्र प्राप्त करने की इच्छा से अन्य देवताओं का ही पूजन किया करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7/20, 21, 22; 9/23,24
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