श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रश्न- ‘अजः’, ‘अव्ययात्मा’ और ‘भूतानामीश्वरः’- इन पदों के साथ ‘अपि’ और ‘सन्’ का प्रयोग करके यहाँ क्या भाव दिखलाया गया है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ- वास्तव में मेरा जन्म और विनाश कभी नहीं होता, तो भी मैं साधारण व्यक्ति की भाँति जन्मता और विनष्ट होता-सा प्रतीत होता हूँ; इसी तरह समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी एक साधारण व्यक्ति-सा प्रतीत होता हूँ। अभिप्राय यह है कि मेरे अवतार-तत्त्व को न समझने वाले लोग जब मैं मत्स्य, कच्छप, वराह और मनुष्यादि रूप में प्रकट होता हूँ, तब मेरा जन्म हुआ मानते हैं और जब मैं अन्तर्धान हो जाता हूँ, उस समय मेरा विनाश समझ लेते हैं तथा जब मैं उस रूप में दिब्य लीला करता हूँ, तब मुझे अपने-जैसा ही साधारण व्यक्ति समझकर मेरा तिरस्कार करते हैं।[1] वे बेचारे इस बात को नहीं समझ पाते कि ये सर्वशक्तिमान् सर्वेश्वर, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा ही जगत् का कल्याण करने के लिये इस रूप में प्रकट होकर दिव्य लीला कर रहे हैं; क्योंकि मैं उस समय अपनी योगमाया के परदे में छिपा रहा हूँ।[2] प्रश्न- यहाँ ‘स्वाम्’ विशेषण के सहित ‘प्रकृतिम्’ पद किसका तथा ‘आत्ममायया’ किसका वाचक है और इन दोनों में क्या भेद है? उत्तर- भगवान् की शक्तिरूपा जो मूल-प्रकृति है, जिसका वर्णन नवम अध्याय के सातवें और आठवें श्लोक में किया गया है और जिसे चौदहवें अध्याय में ‘महद्ब्रह्म’ कहा गया है, उसी ‘मूलप्रकृति’ का वाचक यहाँ ‘स्वाम्’ विशेषण के सहित ‘प्रकृतिम्’ पद है। तथा भगवान् अपनी जिस योगशक्ति से समस्त जगत् को धारण किये हुए हैं, जिस असाधारण शक्ति से वे नाना प्रकार के रूप धारण करके लोगों के सम्मुख प्रकट होते हैं और जिसमें छिपे रहने के कारण लोग उनको पहचान नहीं सकते तथा सातवें अध्याय के पचीसवें श्लोक में जिसको योगमाया के नाम से कहा है- उसका वाचक यहाँ ‘आत्ममायया’ पद है। ‘मूलप्रकृति’ को अपने अधीन करके अपनी योगशक्ति के द्वारा ही भगवान् अवतीर्ण होते हैं। मूलप्रकृति संसार को उत्पन्न करने वाली है, और भगवान् की यह योगमाया उनकी अत्यन्त प्रभावशालिनी, ऐश्वर्यमयी शक्ति है। यही इन दोनों का भेद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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