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चतुर्थ अध्याय
प्रश्न- पहले श्लोक में तो ‘योगम्’ के साथ ‘अव्ययम्’ विशेषण देकर इस योग को अविनाशी बतलाया और यहाँ कहते हैं कि वह नष्ट हो गया; इस परस्पर विरोधी कथन का क्या अर्थ है? यदि वह अविनाशी है, तो उसका नाश नहीं होना चाहिये और यदि नाश होता है, तो वह अविनाशी कैसे?
उत्तर- परमात्मा की प्राप्ति के साधनरूप कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि जितने भी साधन हैं- सभी नित्य हैं; इनका कभी अभाव नहीं होता। जब परमेश्वर नित्य हैं, तब उनकी प्राप्ति के लिये उन्हीं के द्वारा निश्चित किये हुए अनादि नियम अनित्य नहीं हो सकते। जब-जब जगत् का प्रादुर्भाव होता है, तब-तब भगवान् के समस्त नियम भी साथ-ही-साथ प्रकट हो जाते हैं और जब जगत् का प्रलय होता है, उस समय नियमों का भी तिरोभाव हो जाता है; परंतु उनका अभाव कभी नहीं होता। इस प्रकार इस कर्मयोग की अनादिता सिद्ध करने के लिये पूर्व श्लोक में उसे अविनाशी कहा गया है। अतएव इस श्लोक में जो यह बात कही गयी कि वह योग बहुत काल से नष्ट हो गया है- इसका यही अभिप्राय समझना चाहिये कि बहुत समय से इस प्रथ्वी लोक में उसका तत्त्व समझने वाले श्रेष्ठ पुरुषों का अभाव-सा हो गया है, इस कारण वह अप्रकाशित हो गया है, उसका इस लोक में तिरोभाव हो गया है, यह नहीं कि उसका अभाव हो गया है, क्योंकि सत् वस्तु का कभी अभाव नहीं होता; सृष्टि के आदि में पूर्व श्लोक के कथनानुसार भगवान् से इसका प्रादुर्भाव होता है; फिर बीच में विभिन्न कारणों से कभी उसका अप्रकाश होता है तथा कभी प्रकाश और विकास। यों होते-होते प्रलय के समय वह अखिल जगत् के सहित भगवान् में ही विलीन हो जाता है। इसी को नष्ट या अदृश्य होना कहते हैं; वास्तव में वह अविनाशी है, अतएव उसका कभी अभाव नहीं होता।
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