श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: ।
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि एक-दूसरे से शिक्षा पाकर कई पीढ़ियों तक श्रेष्ठ राजा लोग इस कर्मयोग का आचरण करते रहे; उस समय इसका रहस्य समझने में बहुत ही सुगमता थी, परंतु अब वह बात नहीं रही। प्रश्न- ‘राजर्षि’ किसको कहते हैं। उत्तर- जो राजा भी हो और ऋषि भी हो अर्थात् जो राजा होकर वेदमन्त्रों के अर्थ का तत्त्व जानने वाला हो, उसे ‘राजर्षि’ कहते हैं। प्रश्न- इस योग को राजर्षियों ने जाना, इस कथन का क्या अभिप्राय है कि दूसरों ने उसे नहीं जाना? उत्तर- ऐसी बात नहीं है, क्योंकि इसमें दूसरों के जानने का निषेध नहीं किया गया है। हाँ, इतना अवश्य है कि कर्मयोग का तत्त्व समझने में राजर्षियों की प्रधानता मानी गयी है; इसी से इतिहासों में यह बात मिलती है कि दूसरे लोग भी कर्मयोग का तत्त्व राजर्षियों से सीखा करते थे। अतएव यहाँ भगवान् के कहने का यही अभिप्राय मालूम होता है कि राजा लोग पहले ही से इस कर्मयोग का अनुष्ठान करते आये हैं और तुम भी राजवंश में उत्पन्न हो, इसलिये तुम्हारा भी इसी में अधिकार है और यही तुम्हारे लिये सुगम भी होगा। प्रश्न- बहुत काल से वह योग इस लोक में प्रायः नष्ट हो गया, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि जब तक वह परम्परा चलती रही तब तक तो कर्मयोग का इस पृथ्वीलोक में प्रचार रहा। उसके बाद ज्यों-ज्यों लोगों में भोगों की आसक्ति बढ़ने लगी, त्यों-ही-त्यों कर्मयोग के अधिकारियों की संख्या घटती गयी; इस प्रकार हृास होते-होते अन्त में कर्मयोग की वह कल्याणमयी परम्परा नष्ट हो गयी; इसलिये उसके तत्त्व को समझने वाले और धारण करने वाले लोगों का इस लोक में बहुत काल पहले से ही प्रायः अभाव-सा हो गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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